इसे मैं शीर्षक नहीं दे पाया

(समीर जी के लेख "मैं कृष्ण होना चाहता हूं" से प्रेरित हो कर) 
छायाचित्र साभार: समीर जी के लेख से

हर एक में कहीं
भीतर ही होता है कृष्ण
और होता है
एक निरंतर महाभारत
भीतर ही भीतर,
क्यों ढूढते है हम सारथी
जब स्वयं में है कृष्ण,
मैं तुम और हम में बटा ये चक्रव्यूह
तोड़ता है भीतर का ही अर्जुन,
माटी है और सिर्फ माटी है
हर रोज यहां देखता है
मैं तुम और हम का कुरुक्षेत्र !!

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7 comments:

  1. बहुत सुन्दर रचना!

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  2. एकदम सच ! शीर्षक की ज़रुरत नहीं है ... आपने बखूबी अपनी बात कह दी ...

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  3. जन साधारण का जीवन संघर्ष देखा दिए हैं आप... टाईटिल का जरूरते नहिं है.. जो जईसा देखेगा, वईसा उसको जिंदगी का रूप देखाई देगा.. बहुत बढिया..

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  4. आपकी इस सुंदर प्रस्‍तुति का शीर्षक हो सकता है आधार।

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  5. जो भीतर है उसे बाहर खोजने की प्रवृति पुरातन काल से हम में है.
    कस्तूरी मृग का उदाहरण हमारे सामने है .
    बहुत सुन्दर कविता जो शीर्षक की मोहताज नहीं.

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Nobody, I think, ought to read poetry, or look at pictures or statues, who cannot find a great deal more in them than the poet or artist has actually expressed. Their highest merit is suggestiveness.
Nathaniel Hawthorne
(1804-1864)
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