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“लेखन में कोई किसी का गुरु नहीं होता, लेखक स्वयं अपना गुरु होता है।”---रत्नचंद ‘रत्नेश’

लघुकथा कार रतन चंद रत्नेश से साहित्यकार नेतराम भारती की

बातचीत। 
साभार : नेतराम भारती के फेसबुक प्रोफाइल से
https://www.facebook.com/share/p/tbYDxEA5vkDRAdsv/?mibextid=oFDknk

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नेत राम भारती :-सर ! क्या कारण है कि आज लेखक विश्वसनीय नहीं लगते, जबकि वे समाज का दर्द, उसके निवारण और सरोकारों की आवाज़ भी अपने लेखन में उठाते रहते हैं ?


रतन चंद ‘रत्नेश’- एक अच्छी लघुकथा या कहानी कल्पना और यथार्थ के धरातल से उपजती है। कल्पना का मुख्य ध्येय शिल्प या कलात्मकता है। सपाटबयानी किसी भी रचना को कमजोर बना देती है। पाठक को उसमें कुछ भी नया नजर नहीं आता है। अविश्वसनीय रचनाओं की बाढ़ विश्वसनीयता को बहा ले जाती है। जो लेखक जल्दबाजी में नहीं, बल्कि सोच-समझकर पूरे मनोयोग से किसी रचना का सृजन करते हैं, उन पर विश्वसनीयता बनी रहती है और यह लघुकथा विधा में भी समान रूप से लागू होता है। सामाजिक विसंगतियाँ और विडंबनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं किए जाने के कारण उसकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो जाती है। 


नेतराम भारती - सर! लघुकथा आपकी नजर में क्या है, लघुकथा को लेकर बहुत सारी बातें जितने स्कूल उतने पाठ्यक्रम वाली स्थिति है यदि नव लघुकथाकार के लिए सरल शब्दों में आपसे पूछा जाए तो आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे?


रत्नेश- किसी सामाजिक, राजनैतिक और सार्वभौमिक मुद्दे (विशेषकर ज्वलंत) को केंद्र में रखकर लघु रूप में उसे प्रस्तुत करना ही लघुकथा है। 


नेतराम भारती - सर! आपकी दृष्टि में साहित्य क्या है?


रत्नेश- मेरी दृष्टि में साहित्य एक सतत रचनात्मक प्रक्रिया है, जिसका संबंध हित से है। सर्वे भवन्तु सुखिनः... 


नेतराम भारती :- सर! लघुकथा में लेखकों की संख्या लगातार बढ़ रही है परंतु उस अनुपात में समीक्षक-आलोचक दिखाई नहीं देते। आज लघुकथाकार ही समीक्षक का दायित्व भी निभा रहा है। ऐसे में क्या किसी भी विधा के विस्तार के लिए स्वस्थ विमर्श और कुशल विमर्शकारों का आगे न आना चिंता की बात नहीं है?


रत्नेश- अधिकांश समीक्षक और समालोचक लघुकथा को अलग से एक विधा मानने से इनकार करते हैं। उनकी निगाह में यह मात्र कथा-कहानी का लघुरूप है। चूँकि लघुकथाओं में कहानी के सभी तत्त्वों का समाहित करना असंभव है, इसलिए वे लघुकथा को अपूर्ण समझते हैं और उस पर टिप्पणी या आलोचना करने से गुरेज करते हैं। विगत कुछ वर्षों में लघुकथा के स्तर में जिस कदर गिरावट आई है, उस कारण समालोचकों का मिलना और भी मुश्किल हो गया है। कुछ कॉलेज और विश्वविद्यालयों ने लघुकथा को पाठ्यक्रम में शामिल करना आरंभ किया है। इससे यह सुखद संकेत मिलता है कि अब आलोचक भी मिलेंगे।  


नेतराम भारती - सर ! आपके लिए लेखन का क्या महत्व है?


रत्नेश- मेरे लिए लेखन का महत्व देश और समाज को सकारात्मक दिशा प्रदान कर उसे नई  दृष्टि देना है। 


नेतराम भारती - सर! समकालीन लघुकथाकारों के सामने आप क्या चुनौतियाँ देखते हैं?


रत्नेश- सबसे बड़ी चुनौती लघुकथा की आत्मा को बचाए रखना है। इस विधा की नींव जिस आधार पर रखी गई थी, उसे अक्षुण्ण बनाए रखने का सतत प्रयास होना चाहिए, भले तरह-तरह के प्रयोग किए जाँय। किसी जमाने में लघुकथाएँ पत्र-पत्रिकाओं में फीलर की तरह प्रयोग में लाई जाती थीं अर्थात अगर कहीं कागज का कोई कोना बचा रह गया तो वहाँ छोटी-सी रचना चेप दो। फीलर अब नए रूप में आ गया है, जहाँ संपादकीय अदूरदर्शिता के कारण वह कहीं न कहीं अपना स्थान (फीलर) बना ही लेता है। 


नेतराम भारती - लगता है, आप आजकल लिखी जा रही लघुकथाओं से प्रसन्न नहीं हैं?


रत्नेश- प्रसन्नता तब होती है, जब किसी विशेषांक या पुस्तक की शुरू की दो-चार लघुकथाओं को पढ़ने के बाद भी उसे पूरी तरह पढ़ने का मन करे। शायद मैं इस मामले में गलत भी हो सकता हूँ, परंतु अन्य विधाओं के बनिस्पत आज की लघुकथा का स्तर संतोषप्रद नहीं है।   


नेतराम भारती - सर! लघुकथा विधा में आपकी विशेष रुचि कब और कैसे उत्पन्न हुई?


रत्नेश- स्कूल-कॉलेज के जमाने में मैं विज्ञान संबंधी लेख लिखा करता था। बाद में जब संघर्षमय जीवन शुरू हुआ तो लेखन हाशिये पर चला गया, परंतु भाव अंतर्मन में कहीं दबते चले गए। जब एक स्थायी नौकरी मिल गई, तो पहली बार लघुकथा ही लिखी और एक समाचारपत्र को भेज दी।  हफ्ते बाद ही वह छप गई। हौसला मिला और लगातार लघुकथाएँ और कहानियाँ लिखता चला गया। किसी विषय पर कभी लघुकथा बनती, तो कभी कहानी। मैंने 1981 से लघुकथाएँ लिखना शुरू किया था। पहले साल भर में पचास से अधिक लघुकथाएँ लिख लिया करता था, परंतु आज बड़ी मुश्किल से 8-10 लिख पाता हूँ। पहले लघुकथा लिखना जितना आसान लगता था, आज उतना ही कठिन लगने लगा है।  


नेतराम भारती - सर! आपके दृष्टिकोण में लघुकथा, कहानी और उपन्यास के बीच क्या अंतर है ?


रत्नेश- वही जो एक बीज, पौधे और एक विशाल पेड़ में होता है। बीज में पौधे और पेड़ के गुण छुपे होते हैं। लघुकथाकार  अर्जुन की तरह सिर्फ पेड़ पर बैठी चिड़िया की एक आँख देखता है, कहानीकार पूरी चिड़िया और डाल को देखता है जबकि उपन्यासकार सम्पूर्ण पेड़ और आसपास के माहौल को देखता है। 


नेतराम भारती - सर! एक लघुकथा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व आप किसे मानते हैं?


रत्नेश- मेरे ख्याल से लघुकथा का सबसे महत्वपूर्ण तत्व उसका कथ्य होना चाहिए।  


नेतराम भारती --आजकल देखने में आ रहा है कि लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भांति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है । मैं छोटी बनाम लंबी लघुकथाओं की बात कर रहा हूँ । आप इसे किस रूप में देखते हैं?


रत्नेश- लघुकथा का शाब्दिक अर्थ ही है - ऐसी कथा जो लघु हो। पंजाबी में इसे मिनी (अंग्रेजी से लिया गया) और बांग्ला में अनुगल्प यानी कि अणु जैसी कथा कहते हैं। लघुकथा कम शब्दों में पूरी बात कह जाती हो, तो वही सही मायने में लघुकथा है, वरना लघु कहानियाँ तो आरंभ से ही लिखी जा रही हैं। अलग से लघुकथा नामकरण  का क्या तुक? अवांछित और अनावश्यक शब्दों से परहेज करती कसी बुनावट की कथा ही लघुकथा होनी चाहिए।  


नेतराम भारती - सर! क्या लघुकथा साहित्य में वह बात है कि वह एक जन आंदोलन बन जाए अथवा क्या वह समाज को बदल सकने में सक्षम है?


रत्नेश- फिलहाल तो ऐसा नहीं लगता। लघुकथाकर मिलकर कोई जन आंदोलन खड़ी कर दें तो बात दूसरी है। कई लघुकथाएं प्रभावशाली तो होती हैं, परंतु उनका प्रभाव क्षणिक ही होता है। 


नेतराम भारती --क्या आपको लगता है कि समकालीन लघुकथाएं समाज के वास्तविक मुद्दों को प्रतिबिंबित करती हैं?


रत्नेश- निस्संदेह प्रतिबिंबित करती हैं, परंतु अधिकांश लघुकथाओं की पेशकारी इतनी कमजोर होती है कि वह मात्र एक अखबारी घटना बनकर रह जाती है। 


नेतराम भारती - सर ! लघुकथा आज एक सर्वप्रिय विधा है बावजूद इसके, पाठकों तक लघुकथा की अधिकाधिक पहुँच और उनमें इसके प्रति और जुड़ाव और जिज्ञासा को बढ़ाने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?


रत्नेश- सुझाव यही है कि स्तरीय लेखन किया जाए और यह तभी संभव होगा जब कम लिखा जाएगा। बिना किसी वैचारिक सोच या चिंतन के हर इस-उस घटना को लघुकथा का जामा पहनना इस विधा के प्रति अन्याय है। दुर्भाग्य से नए लेखक इसी का शिकार हो रहे हैं। 


नेतराम भारती - सर! लघुकथा के ऐसे कौन- से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है?


रत्नेश- लघुकथा में मूल कथानक को बरकरार रखते हुए उसके शिल्प और सौन्दर्य पर कार्य करने की अत्यंत आवश्यकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसे बोझिल बना दिया जाए। लघुकथा की पृष्ठभूमि में कई अनदेखी कथाएँ समाहित हों, तो लघुकथा की उत्कृष्ठता में चार चाँद लग जाते हैं। सब कुछ कह देना उचित नहीं है, संकेत बहुत कुछ कह जाता है। शब्दों के चयन और शीर्षक पर गंभीरता से विचार करना भी बेहद जरूरी है। 


नेतराम भारती - सर! एक और प्रश्न, यह शायद सभी लघुकथाकार मित्रों के जहन में घुमड़ता होगा कि आमतौर पर पत्र-पत्रिकाओं और लघुकथा आधारित प्रतियोगिताओं में एक शर्त होती है कि लघुकथा अप्रकाशित, मौलिक व अप्रसारित ही होनी चाहिए । इस आलोक में प्रश्न यह उठता है कि क्या एक बार रचना प्रकाशित हो जाने के बाद,अपनी उपयोगिता बड़े पाठक वर्ग, बड़े मंचों या अन्य पत्र-पत्रिकाओं या आलोचकों- समीक्षकों की प्रशंसा- आलोचना को प्राप्त करने का हक खो देती है? क्या उस लघुकथा का पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता है? इस पर आप क्या कहेंगे?


रत्नेश- हर पत्र-पत्रिका का पाठक वर्ग अलग होता है, इसलिए पूर्व प्रकाशित लघुकथा फिर से किसी अन्य पत्र में छपे तो कोई हानि नहीं है। पत्रिका के पाठक भी सिर्फ लघुकथाकर हों तो बात दूसरी है, परंतु ऐसा होता नहीं। पत्र-पत्रिका निकालने वाले भी यही अपेक्षा रखते हैं कि वह जन-साधारण तक अधिकाधिक पहुँचे। इस दृष्टि से  अगर रचना अच्छी हो तो उसे बार-बार छपना चाहिए। हाँ, प्रतियोगिताओं के लिए यह शर्त तो माननी पड़ेगी कि वे मौलिक और अप्रकाशित हों। देखने में यह भी आया है कि लेखक ने कहीं कोई लघुकथा छपने के लिए भेजी हो, परंतु उसे स्वीकृति या अस्वीकृति की सूचना नहीं मिलती है। यहाँ तक कि कई बार रचना छप भी जाती है और लेखक को इसकी भनक तक नहीं लगती। ऐसे में लेखकों का यह मान लेना कि उनकी रचना अप्रकाशित है, जायज है।  


नेतराम भारती -- सर! वर्तमान लघुकथा में आप क्या बदलाव महसूस करते हैं?


रत्नेश- इस प्रश्न का उत्तर दे पाना मेरे लिए कठिन है। किसी भी बदलाव से अगर यह विधा समृद्ध होती है, वह स्वीकार्य है। 


नेतराम भारती - सर! आपको अपनी लघुकथाओं के लिए प्रेरणा कहाँ से मिलती है?


रत्नेश- आँखिन  देखी या कानों सुनी घटनाओं से। कई बार कोई रचना पढ़ते समय भी किसी लघुकथा या कहानी का प्लाट उभर आता है, जो मौलिक होता है।  


नेतराम भारती - सर ! एक प्रश्न और, सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघुकथाकारों के लिए कितना जरूरी है जरूरी है भी या नहीं क्योंकि कुछ विद्वान कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनके लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली के प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है इस पर आपका क्या दृष्टिकोण है?


रत्नेश- वरिष्ठ और स्थापित कथाकारों को पढ़ना नितांत आवश्यक है। कोई किसी की शैली से इतना प्रभावित नहीं हो सकता कि उसकी अपनी कोई शैली ही न बन पाए। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में तो हर छात्र सिद्ध लेखकों को ही पढ़ता है। क्या इससे किसी की शैली प्रभावित होती है? सिर्फ एक ही लेखक को पढ़ा जाए तो कुछ हद तक शैली प्रभावित हो सकती है। 


नेतराम भारती --आपके पसंदीदा लघुकथाकार कौन-कौन हैं और क्यों?


रत्नेश- यों तो कई हैं, परंतु सर्वाधिक प्रभावित किया है मंटो ने। उनकी लघुकथाएँ झिंझोड़ कर रख देती हैं। मुझे ऐसी लघुकथाएँ पसंद हैं, जिनका अंत चौंकाता है या फिर कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। बांग्ला साहित्य के बनफूल भी मेरे पसंदीदा लघुकथाकर हैं। पंजाबी (गुरुमुखी) में लिखने वाले एक लघुकथाकार ने भी किसी समय मुझे बहुत प्रभावित किया था। पंजाब के लघुकथाकारों में उनका नाम अब कम ही लिया जाता है। वे भी अब मोगा में अपनी डाक्टरी में रम गए हैं। नाम है अमरीक सिंह कंडा। भ्रष्ट व्यवस्था पर वे तीखा प्रहार करते थे।  


नेतराम भारती - सर ! क्या आपको लगता है कि समकालीन लघुकथाएँ आने वाले समय में लघुकथा साहित्य का भविष्य निर्धारित करेंगी अथवा आपके अनुसार लघुकथा का क्या भविष्य है?


रत्नेश- भविष्य के गर्भ में क्या छिपा है, कहना मुश्किल है। अस्सी के दशक में लघुकथा का जो उज्ज्वल भविष्य मुझे नजर आता था, वह तो फिलहाल धूमिल होता दिख रहा है। एक अंतराल के बाद फिर से नई उच्चाइयां छूएगा, ऐसी कामना करता हूँ।   


नेतराम भारती - सर! अगर आपसे पूछा जाए कि उभरते हुए अथवा लघुकथा में उतरने की सोचने वाले लेखक को कुछ टिप्स या सुझाव दीजिए, तो एक नव-लघुकथाकार को आप क्या या क्या-क्या सुझाव देना चाहेंगे?


रत्नेश - लघुकथा में हाथ आजमाने का फैसला कर ही लिया हो तो अवश्य लिखें, परंतु उसे तत्काल प्रकाशित करने या सोशल मीडिया पर प्रचारित करने से गुरेज करें। उस रचना को कुछ समय दें। वरिष्ठ लघुकथाकारों को अधिकाधिक पढ़ें। लघुकथा के मूल स्वरूप और स्वभाव को भलीभाँति समझने का प्रयास करें। लेखन में कोई किसी का गुरु नहीं होता और न इसे किसी प्रशिक्षण के तहत सिखाया जा सकता है। लेखक स्वयं अपना गुरु होता है। अपनी रचनाओं के स्वयं एक कटु आलोचक बनें। 


नेतराम भारती :- सर ! एक लेखक के लेखन में भाषा और वर्तनी की सुस्पष्टता, त्रुटिहीनता कितनी आवश्यक है, दूसरे शब्दों में कहूँ तो एक लघुकथाकार को भाषा और वर्तनी की जानकारी होना कितना जरूरी समझते हैं आप?


रत्नेश - भाषा और वर्तनी में त्रुटि पठनीयता में अवरोध उत्पन्न करती है। अतः इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इनकी अशुद्धता कई बार अर्थ का अनर्थ कर देती है। 


नेतराम भारती :- सर! साहित्य का उम्र और सर्जन से अथवा कनिष्ठता- वरिष्ठता से क्या सम्बंध है, कुछ सम्बंध है भी अथवा नहीं?


रत्नेश- वैचारिक दृष्टि से कनिष्ठता और वरिष्ठता समान धरातल पर हो सकते हैं, परंतु अनुभव की दृष्टि से वरिष्ठता का निस्संकोच सम्मान होना चाहिए। 


नेतराम भारती :- सर! मैं नाम भी उजागर कर सकता हूँ परंतु यह शिष्टाचार के विरुद्ध होगा इसलिए बिना किसी का उल्लेख किए मैं जानना चाहता हूँ कि, क्या आप मानते  हैं कि अधिकांश लघुकथा आधारित पत्रिकाओं में लघुकथाएं स्तरीय नहीं होतीं हैं? 


रत्नेश- मुझे भी अक्सर यही शिकायत रहती है कि अधिकतर लघुकथा आधारित पत्र-पत्रिकाओं में स्तरीयता नहीं होती और इसका जिक्र मैं पहले पूछे गए प्रश्नों में भी कर चुका हूँ। स्तर बनाने के लिए संपादक को भी परिश्रम करना चाहिए। मुझे तो कई बार ऐसा लगता है कि कई संपादक लघुकथा के मर्म की समझ नहीं पाते हैं। जो भी आकार में छोटा हो, उनकी नजर में लघुकथा है। अगर संपादक को सचमुच लघुकथा की समझ है तो उसे कड़ा रुख अपनाकर बेहतरीन लघुकथाओं को ही अपनी पत्रिका में शामिल करना चाहिए।    

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संक्षिप्त परिचय - 

रतन चंद ‘रत्नेश’ की विभिन्न विधाओं में अब तक 18 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें से तीन कहानी संग्रह ‘सिमटती दूरियाँ’, एक अकेली’ और ‘झील में उतरती ठंड’, ‘कोई अपना’ (लघुकथा-संग्रह), ‘खिड़की पर छाँह’ (कविता-संग्रह) और ‘धरती पर तारे’ (बालगीत-संग्रह) प्रकाशित। रत्नेश बांग्ला भाषा से हिन्दी अनुवाद में भी सिद्धहस्त हैं और कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद किया है। इनमें त्रैलोक्यनाथ चक्रबर्ती की आत्मकथा ‘जेल में 30 वर्ष’ और राजशेखर बसु का प्रख्यात 760 पृष्ठों का ‘महाभारत’ उल्लेखनीय हैं।

देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानी, लघुकथा, कविता, व्यंग्य, बाल-रचनाएँ और अनुवाद का निरंतर प्रकाशन होता आ रहा है।

ईमेल- ratnesh1859@gmail.com

मोबाइल- 9417573357

महिला साहित्यकार और समाज सेवा सम्मान से किया अलंकृत

राष्ट्रीय महिला दिवस-2024 के अवसर पर राष्ट्रीय कवि संगम, हिमाचल द्वारा साहित्यिक लेखन, समाज सेवा और कला संस्कृति के प्रसार-प्रचार में उत्कृष्ट योगदान के लिए हिमाचल प्रदेश की महिला साहित्यकारों और महिला समाज सेविकाओं को राज्य स्तरीय महिला साहित्यकार और समाज सेवा सम्मान से अलंकृत किया गया। यह कार्यक्रम सप्त सिंधु परिसर देहरा 2 हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय में 9 मार्च 2024 को आयोजित हुआ। जिसमें मुख्य अतिथि डॉक्टर संजीत सिंह ठाकुर अधिष्ठाता समाज विज्ञान संकाय हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय और कार्यक्रम की अध्यक्षता राष्ट्रीय कवि संगम हिमाचल अध्यक्ष डॉ संदीप शर्मा ने की। सम्मान समारोह में विशेष अतिथियों में शक्ति चंद राणा प्रभारी राष्ट्रीय कवि संगम, युद्धवीर टंडन उपाध्यक्ष राष्ट्रीय कवि संगम हिमाचल, विकास गुप्ता अध्यक्ष चंबा, प्रभात राणा संरक्षक चंबा, उदयवीर भारद्वाज संरक्षक कांगड़ा, रजनीश धवाला विशेष रूप से उपस्थित रहे। 

साहित्य, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए डॉ. शशि पूनम हमीरपुर, कमलेश सूद - पालमपुर, सुरेश लता अवस्थी, पालमपुर, अनीता भारद्वाज, बैजनाथ, उषा कालिया, कांगड़ा, अरुणा व्यास पालमपुर, अनु ठाकुर, मंडी, पूजा सूद = डोगर, शिमला, विजय कुमारी सहगल बिलासपुर, अर्चना सिंह, कांगड़ा, कल्पना गांगटा, शिमला, मीना चंदेल = बिलासपुर, उपासना पुष्प, डलहौजी, ललिता कश्यप, बिलासपुर, रविंद्रा - कुमारी, पालमपुर, रुचिका परमार कांगड़ा, सुनीता कौल कांगड़ा, मंजू शर्मा बैजनाथ, डॉ प्रिया शर्मा कांगड़ा, डॉ श्वेता शर्मा कांगड़ा, सुमन बाला कांगड़ा, डॉ सत्येंद्र डोहरू कांगड़ा, डॉ स्नेह लता नेगी किन्नौर, अरुणा भारद्वाज धर्मशाला, कांति सूद धर्मशाला, - आशा शर्मा हमीरपुर, प्रो निरूपमा सिंह, सरोज परमार पालमपुर, मोनिका सिंह डलहौजी, रीना भारद्वाज शिमला, डॉ. सपना नेगी किनौर, उमा ठाकुर नदैक शिमला, संतोष शर्मा ऊना, संतोष कालरा सोलन, मनु विनीत शर्मा मंडी, मंजू सूर्यवंशी चंबा, डॉ कविता बिजलवान चंबा को सम्मानित किया गया।

कविता - नीलम शर्मा अंशु



1.

तू किसी को ख़्वाब की मानिंद
अपनी नींदों में रखे ये रज़ा है तेरी
पर यहां किस कंबख्त को नींद आती है ?
अरे, तुझसे भले तो ये अश्क हैं
कभी मुझसे जुदा जो नहीं होते!
टपक ही पड़ते हैं
भरी महफि़ल या तन्हाई में
कहीं भी, कभी भी
बेमौसम बरसात की तरह।

2.

ये हो न सका !
चाहा तो था बहुत
कि दिल में नफ़रत का गुबार
भर जाए तुम्हारे प्रति
पर जहां पहले से ही
मुहब्बत पाँव पसारे बैठी थी
वहाँ चाहकर भी ये हो न सका
मुझे माफ़ कर देना, ऐ दिल !
मैं दिमाग़ की सुन न सका
दिल और दिमाग़ के द्वन्द्व में
ये हो न सका
चाहा तो था बहुत......

3.

कैसा लगता है.......

मुझे पता है कैसा लगता है.......
जब  सब कर रहे होते हैं इंतज़ार
बड़ी बेसब्री से, रविवार की शाम।
कब शाम हो और मेरी आवाज़
लरज़ कर पहुंचे उन तक
हवाओं की मार्फत/
हवाओं पर होकर सवार।
मुझे यह भी पता है
कैसा लगता है जब
शहर में बारिश, आंधी-तूफान का
नियमित दौर जारी हो।
यह भी कि जब आप घंटों तक
अपने सुनने वालों का मनोरंजन करें,
अच्छे-अच्छे नगमें सुनाएं।
कैसा लगता है.....
और फिर घर वापसी के वक्त
मौसम की बेवफाई के कारण
यातायात के साधन भी
धोखा दे जाएं,
विशेषकर शहर की धुरी मेट्रो।
मेट्रो के निकट पार्किंग में धन्नो
इंतज़ार करती रहे और आप
उस तक पहुंच ही न पाएं
धन्नो तक पहुंचने में ही
घड़ी की सुईयां 8 से 10 पर पहुंच जाएं
और उस तक पहुंचते ही
वो मात्र 15 मिनटों में घर पहुंचा दे
रश्क होता है धन्नो की वफ़ा पर
दिल रोता है अन्य साधनों की बेवफ़ाई पर।
                                                
4.

आई बैसाखी

आज फिर आई है बैसाखी
दिन भर चलेगा दौर
एस एम एस, ईमेल, फेस बुक पर
बधाई संदेशों का....
याद हो आती है
इतिहास के पन्नों में दर्ज
एक वह बैसाखी जब
दशमेश ने 1699 में
जाति-पाति का भेद-भाव मिटा
मानवता की रक्षा खातिर
सवा लाख से एक को लड़ा
नींव रची थी खालसा पंथ की
शत-शत नमन, शत-शत वंदन
दशमेश के चरणों में।
क्या सचमुच आज
हर्षोल्लास का दिन है?
ऐसे में जब याद हो आती हो
इतिहास के पन्नों में दर्ज
1919 की वह खूनी बैसाखी
जब जलियांवाले बाग में
हज़ारों बेगुनाह, निरीह, निहत्थी ज़िंदगियां
बर्बरता और क्रूरता का शिकार हुईं।
उन परिजनों तक
कौन पहुंचाएगा संवेदना संदेश
शत-शत नमन, वंदन उनकी अमर शहादत को
जिसने रखी थी नींव इन्क़लाब की।

5.

इस धरा को जन्नत बनाएं हम
इक बूटा मुहब्बत का लगाएं हम
महका कर हर तरफ प्यार की खुशबू
मिटाए नफ़रतों का ज़हरीला प्रदूषण
आओ इस धरा को जन्नत बनाएं हम

न तेरी न मेरी हो सबकी ज़मीं ये
न तेरा न मेरा हो सबका चमन ये
हो खुशनुमा, हरियाला, प्यारा सा वतन ये।
आओ इस धरा को ज़न्नत बनाएं हम
इक बूटा मुहब्बत का लगाएं हम।

डॉ. शंकर वसिष्‍ठ की पुस्‍तकें

 डॉ. शंकर वसिष्‍ठ की पुस्‍तकें 






सुबकते पन्नों पर बहस : एक सार्थक संवाद

  सुबकते पन्नों पर बहस   :  एक
सार्थक संवाद

कवि-आलोचक डॉ. अनिल पांडेय ने सुबकते पन्नों पर बहस की कविताओं के माध्यम से समकालीन हिंदी कविता पर जो आलोचनात्मक टिप्पणियां दी हैं वे सुबकते पन्नों पर बहस के कवि  अनुज देवेंद्र धर के लिए तो निसंदेह उत्साहवर्धक होंगी ही -कविता के मर्मज्ञ पाठकों के लिये भी लाभप्रद होंगी जो साहित्य के इस दमघोटू माहौल में श्रेष्ठ कविताओं की तलाश करते रहते हैं। दिल की गहराइयों से आपका आभार डॉ अनिल पांडेय ।

अपने इस संवाद में कवि देवेंद्र धर की कविताओं पर  टिप्पणी दर्ज करते हुए
डॉ. अनिल पांडेय कहते हैं:...ऐसी बहुत-सी कविताएँ हैं देवेन्द्र धर के पास जिनको आप मजबूत कविताएँ कह सकते हैं...यह संग्रह अमूमन सुबकते पन्नों पर बहस जो शीर्षक है उसको इतनी सार्थकता के साथ अभिव्यक्त करता है
, इतनी सार्थकता के साथ मजबूती देता है कि आप कल्पना नहीं कर सकते|"  
अनिल  पांडेय जी ने गांव अब लौट जा कविता से अपना संवाद प्रारंभ किया।संग्रह की एक सशक्त कविता इंतज़ार पर भी इस संवाद में चर्चा की है।कविता की अंतिम पंक्तियों- हम जानते हैं/बीज हैं हम फिर उगेगें/बस मौसम और खाद का इंतजार है-पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए आपने कहा है:"बस मौसम और खाद का इंतजार है और ये कि बीज हैं

हम फिर उगेंगे यह एक कविता की सबसे मजबूत सम्भावना है कि जो बार-बार दबाए कुचले मारे जाने के बाद भी उग आने और अपनी उपस्थित दर्ज करवाने के लिए वह संकल्पित है और प्रतिबद्ध| एक और कविता मैं- वो गीत नहीं लिखूंगा- पर डॉ पांडेय का महत्वपूर्ण व्यक्त है:  

"...कवि जो कहना चाहता है या लिखना चाहता है वह मजबूती के साथ लाता है|
उसको लय से नहीं लेना देना, उसको तुकबंदियों से नहीं लेना-देना और सच में जिसको आप लोकप्रिय कहते हैं...लोकप्रिय होना एक अलग बात है...लोकहित में होना एक अलग बात है| छंदबद्ध और छंदमुक्त के बीच संघर्ष और लड़ाइयों की जो वजह है और लोकप्रियता और लोकहित की भी तो लोकप्रिय कवि नहीं होना चाहता| कवि अगर पर्दे के पीछे भी है और अगर लोकहित में मजबूत अभिव्यक्ति दे रहा है लोकप्रिय ना भी हो तो उसे कोई
अपेक्षा नहीं है
| "

आपका  कवियों और प्रकाशकों को  निम्न संदेश वस्तुतः अत्यंत महत्वपूर्ण है: "...प्रकाशक भी यदि अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक से समझे और कवि...जो महानगरों तक सीमित हो जा रहे हैं वह अगर गाँव में बढने और पहुँचने का ख्व़ाब पालें जैसे एक समय बिसारती हुआ करते थे गाँव में जो चूड़ियाँ, कंगन वगैरह बेचते हैं, अगर उस तरीके से ये कविता लेकर लोगों को सुनाने के लिए

निकले तो मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि ये ऐसी कविताएँ हैं जो एक मजबूत नींव डाल सकती हैं परिवर्तन और बदलाव की ।

परिवर्तन और बदलाव अचानक नहीं आते ये धीरे धीरे आते हैं, धीरे धीरे कार्य करते हैं धीरे धीरे लोगों की चेतना में प्रवेश करते हैं और धीरे धीरे लोग अपने घरों और महलों को छोड़कर सडकों पर आते हैं| यह शुरुआत भी कवियों को करना पड़ेगा| गीत ऐसा लिखना पड़ेगा कि उससे आन्दोलन और क्रांति की आवाज़ आए|"

     साभार