बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो ग़ज़ल नहीं सुनते। मुझे भी ग़ज़ल सुनने का शौक है। अक्सर सुनते सुनते खो सा जाता हूं। ग़ज़ल कभी कायल बनाती है और कभी घायल कर देती है। अभी-अभी एक ग़ज़ल सुन रहा था- तुमने बदले हमसे गिन गिन के लिए ...। सुनते-सुनते इसी में रम गया। जब अपने में आया तो ख्यालों में एक सवाल उभर आया, ‘ये गजल भी क्या नायाब चीज़ है। अनायास ही लबों से निकल आया, 'गजल शय क्या है जान लीजिए, मय का प्याला है मान लीजिए।‘ इस पर मत जाइए कि ये मेरा शे'र बना या नहीं बना है। शे'र बना न बना अलग मुद्दा है। मैंने तो यहां ग़ज़ल की बाबत एक ख्याल जाहिर किया है क्योंकि आदमी के ज़ेहन में ख्यालों का उभरना एक पैदाइशी फितरत...
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जगदीश बाली