जिससे रंगीन है ज़िंदगी, सोच का वो लहू है ग़ज़ल --जगदीश बाली (लेख साभार जगदीश बाली जी की फेस बुक वॉल से)

बहुत कम ऐसे लोग होंगे जो ग़ज़ल नहीं सुनते। मुझे भी ग़ज़ल सुनने का शौक है। अक्सर सुनते सुनते खो सा जाता हूं। ग़ज़ल कभी कायल बनाती है और कभी घायल कर देती है। अभी-अभी एक ग़ज़ल सुन रहा था- तुमने बदले हमसे गिन गिन के लिए ...। सुनते-सुनते इसी में रम गया। जब अपने में आया तो ख्यालों में एक सवाल उभर आया, ‘ये गजल भी क्या नायाब चीज़ है। अनायास ही लबों से निकल आया, 'गजल शय क्या है जान लीजिए, मय का प्याला है मान लीजिए।‘ इस पर मत जाइए कि ये मेरा शे'र बना या नहीं बना है। शे'र बना न बना अलग मुद्दा है। मैंने तो यहां ग़ज़ल की बाबत एक ख्याल जाहिर किया है क्योंकि आदमी के ज़ेहन में ख्यालों का उभरना एक पैदाइशी फितरत है। ग़ालिब साहब ने सही कहा है, 'है आदमी बजाए खुद एक मशहर-ए-ख्याल।' इस ख्याल का इजहार अपने हिसाब से आदमी कैसे भी कर सकता है। लोग अपने ख्यालों को शब्दों की सूरत अता कर कागज़ पर उतार लेते हैं। इजहार-ए-ख्याल की इस सूरत को ही साहित्य या अदब कहते हैं। साहित्य या अदब की अपनी अपनी विधाएं हैं। उर्दू अदब की इस्तमाहत की अगर बात की जाए, तो ग़ज़ल एक अहम मुकाम रखती है। ग़ज़ल में कशिश ऐसी है कि हर कोई इसकी ओर खींचा चला जाता है, फिर वो चाहे पढ़्ने वाला हो, सुनने वाला हो या फिर लिखने या कहने वाला। हिंदी भाषा में भी ग़ज़ल अपना स्थान रखती है। महनीय कवि दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को एक ऊंचे मुकाम पर पहुंचाया। हालांकि हिंदी में ग़ज़ल का समतुल्य छंद है और हिंदी छंद की अपनी अहमियत है, परंतु फिर भी बहुत से लेखक उर्दू ग़ज़ल की तर्ज़ पर ही हिंदी में गज़ल लिख रहे हैं। थोड़ा बहुत जो फर्क है वह वज़्न करते समय मात्राओं का है। अब तो ग़ज़ल नेपाली, गुजराती, अवधी, मैथिली, भोजपुरी भाषाओं में भी लिखी और कही जा रही है। हिमाचल प्रदेश में भी कई लोग पहाड़ी बोलियों में गज़लें प्रस्तुत कर रहे हैं। हालांकि गजल कहने या लिखने का शउर हर लेखक के पास नहीं, परन्तु फिर भी बहुत से काव्यकार ग़ज़ल लिख रहे हैं या लिखना चाहते हैं। वज़्न पर ज़्यादा ध्यान न देते हुए वे रदीफ़ और काफिया का इस्तेमाल करते हुए अपने ख्यालों का इजहार करते हैं और इसे वे मान ग़ज़ल मान लेते हैं या कह देते हैं। यह ग़ज़ल की मकबूलियत और कशिश की बानगी है। 
हालांकि ग़ज़ल अरूज़ का अत्यंत लोकप्रिय व दिलकश अंदाज़-ए-बयां है, परंतु यह चर्चा व उलझन का सबब भी रही है। उर्दू के एक आलोचक ने इसे ‘नंग-ए-शायरी’ कहा है। एक आलोचक ने इसे 'क़ाबिले गर्दन ज़दनी’ कहा है मतलब ग़ज़ल को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। ग़ज़ल के कई तनकीदकार ‘ग़ालिब’ साहब के इस शे'र का ज़िक्र भी करते हैं, ’बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल, कुछ और चाहिए वसुअत मेरे बयां के लिए।’ अर्थात मेरे जेहन की उत्कट भावनाओं को व्यक्त करने के लिए ग़ज़ल एक तंग माध्यम है। मुझे अपनी बात कहने के लिये किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यकता है। परंतु ये कहना अनुचित नहीं होगा कि गालिब के इस शे'र को ग़ज़ल पर तंज नहीं कहा जा सकता। वे इस शे'र के माध्यम से ये कहना चाह रहे हैं कि उनके उत्कट ख्यालों को काव्य या अरूज़ की कोई विधा काफी नहीं है। ये शे'र दर्शाता है कि 'गालिब' की अप्रतिम व अजीम अदबी प्रतिभा को कोई साहित्यिक विधा नहीं बांध सकती। लिहाजा उनके इस शे'र को ग़ज़ल की मुज़्ज़मत नहीं कहा जा सकता। ये बात भी काबिल-ए-गौर है कि गज़लों के माध्यम से ही गालिब को शौहरत व आला मुकाम हासिल है।
तंज-ओ-तनकीद कितनी भी कर लो, इसके बावजूद ग़ज़ल की लोकप्रियता को ग्रहण नहीं लगा। उर्दू अदब के सुप्रसिद्ध आलोचक रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने ग़ज़ल को 'आबरू-ए-शायरी’ कहा हैं। बशीर बद्र ग़ज़ल को ’सल्लतनत’ कहते हुए कहते हैं, ’मुझे खुदा ने ग़ज़ल का दयार बक्शा है, मै ये सल्तनत मोहब्बत के नाम करता हूँ।’ हिमाचल प्रदेश के नामी शायर मरहूम मनोहर 'सागर' पालमपुरी साहब कहते हैं, ’जिससे रंगीन है ज़िन्दगी, सोच का वो लहू है ग़ज़ल।’ ज़ाहिर है ग़ज़ल की मिठास व कशिश को नकारा नहीं जा सकता। मैं गज़ल और छंद को एक दूसरे से बेहतर या खराब घोषित नहीं कर रहा। दोनों काव्य की अनुपम विधाएं हैं और अपनी-अपनी भाषाओं में अहम स्थान रखते हैं। बहरहाल यहां मैं केवल गज़ल की बात कर रहा हूं। 
इब्तिदाई दौर में ग़ज़ल पर्शियन और अरबी से उर्दू में आयी। तब ग़ज़ल औरतों की सुंदरता व उनसे मुहब्बत को व्यक्त करती थी। इन रिवायती गज़लों का सिलसिला अब भी चल रहा है। कतील शिफ़ाई साहब कहते हैं, ’हुस्न को चांद जवानी को कंवल कहते हैं, उनकी सूरत नज़र आए तो गज़ल कहते हैं।’ गज़लों में जो मिठास है, जो दर्द है, करुणा है, ज़ज़्बात हैं, वे हर किसी को छू जाते हैं। ‘फिराक’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल को परिभाषित करते हुए कहा है कि ग़ज़ल उस दर्द भारी आवाज़ को बयां करती जो उस हिरण के कंठ से निकलती है, जब कोई आखेटक शिकारी कुत्तों के साथ उसका पीछा करता है और वह किसी झाड़ी में फंस जाता है। अब रिवायती गज़लों के साथ मानवीय जीवन से जुड़े हर मुहाज़ पर ज़दीद गज़लें लिखी और कही जा रही हैं। 
बेशक ग़ज़ल एक ग़ज़ब हुनर है, जिसे हासिल करने के लिए बरसों के अभ्यास की ज़रूरत है। इकबाल अशर कहते हैं, ’इतनी आसानी से मिलती नहीं फ़न की दौलत, ढल गई उम्र तो गज़लों में जवानी आई।’ ताहम आजकल बहुत से शायर केवल काफ़िया और रदीफ़ को घ्यान में रख कर गज़लें लिख व कह रहे हैं, जिन्हें रिवायती गज़ल गो वज़्न की दृष्टि से खारिज कर देते हैं। शायर दीक्षित दनकोरी कहते हैं, ‘शेर अच्छा बुरा नहीं होता, या तो होता है या नहीं होता।’ वे अपनी जगह सही हैं, परंतु इस बात को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता कि साहित्य में गणितीय आंकड़े का विशुद्ध प्रयोग हमेशा उचित नहीं। इस मुतल्ल्क मनोज मुंतशिर कह्ते हैं, ’साहित्य कुछ भी हो सकता है, परंतु गणित नहीं हो सकता।’ ये बात भी गौरतलब है कि साहित्य केवल साहित्यिकारों की नुक्ताचीनी के लिए ही नहीं होता, बल्कि खसूसी तौर पर पाठकों व श्रोताओं के लिए होता है। अगर उन्हें भा गया तो समझो गज़ल, नज़्म, छंद, कविता सब हो गया। ख़्याल तो आज़ाद हैं। ख़्याल अपना-अपना, इज़हार-ए-ख्याल अपना-अपना और अंदाज़-ए-बयां सबका अपना-अपना। परंतु यह भी सत्य है कि गज़ल या छंद जादू नहीं, पर जादू जैसी कोई चीज़ ज़रूर है।
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इस लेख के लेखक जगदीश बाली, हिमाचल प्रदेश उच्चतर शिक्षा विभाग में अंग्रेजी व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं।
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In a democracy the poor will have more power than the rich, because there are more of them, and the will of the majority is supreme.
Aristotle
(384 BC-322 BC)
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