सेवा ही धर्म है

वनवासी क्षेत्र मे जन्मे सदाशिव गोविन्द कात्रे धर्मशास्त्रों के अध्ययन तथा संतों के सत्संग में लगे रहते थे ! अचानक उन्हें कुष्ठ रोग हो गया ! वह एक संत के पास गए ! उन्होंने प्रश्न किया आपकी दृष्ठि में सबसे पुनीत कार्य क्या है ? उन्होंने उत्तेर दिया असहाय रोगीओं की सेवा से बढ कर दूसरा कोई धरम नहीं है ! कात्रे जी कुष्ठ रोगियों की उपेक्षा के साक्षी थे ! उन्होंने निर्णय लिया की वह अपना समस्त जीवन कुष्ठ रोगीओं के कल्याण में लगायेगे ! वह छत्तीसगढ़ के चाम्पा नगर पहुंचे ! वहां काफी कुष्ठ रोगी रहते थे ! उन्होंने वहीँ कुष्ठ आश्रम की सथापना का निर्णय लिया !
एक दिन वह एक धनिक के पास सहायता के लिए पहुंचे ! धनिक ने गुस्से में कहा कुष्ठ रोगी सहायता लेते हैं ! फिर भीख मँगाने लगते है ! आप जेसे लोग कुष्ठ आश्रम के नाम पर धंधे में लगे ! कात्रे जी लोट आये ! रेल विभाग से सेवानिब्रित होने के बढ उन्होंने भविष्य निधि धन से तीन कमरों का एक आश्रम शुरू किया ! एक दिन उस धनिक ने उन्हें आदर सहित बुलाया और दस वर्ष पूर्व किये गए अपमान की क्षमा मांगी तथा कुछ हज़ार रूपये उनके चरणों में समर्पित करते हुए बोला मेरे गुरु ने आदेश दिया है की रोगीओं की सेवा से भगवान् शीघ्र प्रसन होते है ! मैं अपनी आय का एक अंश कुष्ठ रोगियों के कल्याण में दिया करूँगा ! चाम्पा आज कात्रे नगर के नाम से जाना जाता है ! सेवामुर्ती कात्रे मरने के बाद भी अमर हो गए !

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The first duty of a lecturer—to hand you after an hour's discourse a nugget of pure truth to wrap up between the pages of your notebooks, and keep on the mantelpiece forever.
Virginia Woolf
(1882-1941)
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