लघुकथा- आजादी


बाप–बेटे शहर के चौराहे पर खड़े थे। सामने से एक मौन जुलूस जा रहा था, हाथ में बैनर–पोस्टर थामे।
भावशून्य पिता जुलूस के गुजरने की प्रतीक्षा कर रहा था, पर पाँच वर्ष के अबोध बच्चे के बालसुलभ मन में पश्न कुलबुलाने लगे थे। उसने उत्सुकता से पूछा––
‘‘पापा, ये लोग कौन हैं ?’’
‘‘ये भी हमारी तरह ही इनसान हैं बेटे।’’
‘‘कहाँ जा रहे हैं ये लोग ?’’
‘‘यह इनका जुलूस है। अपने देश की आजादी की माँग कर रहे हैं।’’
बच्चे ने अगला प्रश्न किया–––
‘‘यह आजादी क्या होती है ?’’
पिता थोड़ी देर के लिए सोच में पड़ गया। फिर समझाया, ‘‘इनका भी हमारे जैसा एक देश है जिसे दूसरे देश ने अपने कब्जे में कर रखा है। इन्हें अपना देश वापस चाहिए जहाँ की हवा में ये खुलकर सांस ले सकें।’’
बच्चा कुछ समझा, कुछ नहीं। तब बाप ने आकाश की ओर इशारा किया, ‘‘वह देखो, पक्षी आकाश में आजा़दी से उड़ रहे हैं। यदि इन्हें पकड़कर कोई पिंजड़े में डाल दे तो इनकी आजादी छिन जाएगी।’’
बेटा बाप की बातें ध्यान से सुनता रहा। जब जुलूस गुजर गया तो वे आगे बढ़कर रास्ता पार कर गए।
दोनों बाजार में जा पहुँचे। पिता एक दुकान से सब्जियां खरीदने लगा और बेटा आगे बढ़कर दूसरी दुकान तक चला गया। वहां उसने एक पिंजड़े में बंद तोते को देखा तो कुछ सोचकर उसने उसका दरवाजा खोल दिया। तोता फुर्र से आसमान में उड़ गया।
यह देखकर बच्चा तालियां बजाने लगा, ‘‘आजाद हो गया, आजाद हो गया।’’
बाजार में सबकी निगाहें बच्चे की ओर उठ गयीं। अभी–अभी गुजरे जुलूस का दर्द महसूस करने वाले कई चेहरों पर मुस्कराहटें तिर गयीं। 

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It is a true saying that a man must eat a peck of salt with his friend before he knows him.
Miguel de Cervantes
(1547-1616)
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