अभी–अभी इंटरव्यू देकर वह एक दफ्तर से निकला था। इंटरव्यू तो इस बार भी अच्छा हुआ था पर....? इसके पूर्व भी उसके कई इंटरव्यू अच्छे हुए थे पर नौकरी अभी तक हासिल नहीं कर पाया था। थका–थका–सा वह बस–स्टैंड की ओर बढ़ रहा था। भूख भी जोरों की लग आयी थी। सोचा, घर शीघ्र पहुँचकर वह भोजन कर लेगा। माँ भी प्रतीक्षा कर रही होगी। लोगों के कपड़े सी–सीकर थक जाती है बेचारी। उसकी जेब में दस रुपए थे। सात रुपए बस का किराया ही लग जाना था। पैदल चले तो बहुत देर से पहुंचेगा। भूखी माँ हारकर फिर काम में जुट जाएगी। उसका पेट भूख से बिलबिलाने रहा था। एक केला ही खा लूँ, सोचकर वह एक केले वाले की ओर बढ़ा। तभी एक छोटा–सा लड़का ‘साहब पॉलिश करा लो’ कहता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ। उसे क्षण भर कि लिए लगा कि वह सचमुच साहब हो गया है। एक नौकरीशुदा साहब। उसने अपने पुराने पड़ गए जूतों पर एक निगाह डाली और सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं करानी है भई पॅलिश।’’ ‘‘करा लो न बाबू जी।’’ वह लड़का गिड़गिड़ाने लगा। उसका स्वर दयनीय हो उठा था। उसे महसूस हुआ जैसे उसके अन्दर से कोई कह रहा हो–– ‘‘हमारे घर की दशा अच्छी नहीं है साहब। मुझे नौकरी पर रख लीजिए।’’ उसकी आँखें नम हो आयीं। उसने एक निगाह घड़ी पर डाली और पॉलिश के लिए अपने जूते उस लड़के की ओर बढा दिए । |
लघुकथा- दर्द
Posted by :रतन चन्द रत्नेश
ON
Sunday, May 09, 2010
2 comments


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dil ko chhu jane wali laghu katha. kash sab ki soch aisi hi ho har gareeb k liye.
ReplyDeleteTippani ke liye dhanyawad.
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