धर्मशास्त्रों में शील (चरित्र) को सर्वोपरि धन बताया गया है। कहा गया है कि परदेश में विद्या हमारा धन होती है। संकट में बुद्धि हमारा धन होती है। परलोक में धर्म सर्वश्रेष्ठ धन होता है, परंतु शील ऐसा अनूठा धन है, जो लोक-परलोक में सर्वत्र हमारा साथ देता है। कहा गया है कि शीलवान व्यक्ति करुणा एवं संवेदनशीलता का अजस्र स्रोत होता है। जिसके हृदय में करुणा की भावना है, वही सच्चा मानव कहलाने का अधिकारी है। संत कबीर भी शील को अनूठा रत्न बताते हुए कहते हैं- सीलवंत सबसों बड़ा, सील सब रत्नों की खान तीन लोक की संपदा, रही सील में आन॥ सत्य, अहिंसा, सेवा, परोपकार, ये शीलवान व्यक्ति के स्वाभाविक सद्गुण बताए गए हैं। कहा गया है कि ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ यानी, मानव भगवान का अंशावतार है। अतः उसे नर में नारायण के दर्शन करने चाहिए। दीन-दुखियों की सेवा करने वाला, अभावग्रस्तों व बीमारों की सहायता करने वाला मानो साक्षात भगवान की ही सेवा कर रहा है। निष्काम सेवा को धर्मशास्त्रों में निष्काम भक्ति का ही रूप बताया गया है। स्वामी विवेकानंद तो सत्संग के लिए आने वालों से समय-समय पर कहा करते थे, ‘आचरण पवित्र रखो और दरिद्रनारायण को साक्षात भगवान मानकर उसकी सेवा-सहायता के लिए तत्पर रहो। लोक-परलोक, दोनों का सहज ही में कल्याण हो जाएगा।’ हम अपनी शुद्ध और बुद्ध आत्मा से अनाथों, निर्बलों, बेसहारा लोगों की सेवा करके पितृऋण, देवऋण और आचार्य ऋण से मुक्त हो सकते हैं। |
चरित्र
Posted by :मानसी
ON
Saturday, May 15, 2010
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