(समीर जी के लेख "मैं कृष्ण होना चाहता हूं" से प्रेरित हो कर)
छायाचित्र साभार: समीर जी के लेख से
हर एक में कहीं
भीतर ही होता है कृष्ण
और होता है
एक निरंतर महाभारत
भीतर ही भीतर,
क्यों ढूढते है हम सारथी
जब स्वयं में है कृष्ण,
मैं तुम और हम में बटा ये चक्रव्यूह
तोड़ता है भीतर का ही अर्जुन,
माटी है और सिर्फ माटी है
हर रोज यहां देखता है
मैं तुम और हम का कुरुक्षेत्र !!
छायाचित्र साभार: समीर जी के लेख से
हर एक में कहीं
भीतर ही होता है कृष्ण
और होता है
एक निरंतर महाभारत
भीतर ही भीतर,
क्यों ढूढते है हम सारथी
जब स्वयं में है कृष्ण,
मैं तुम और हम में बटा ये चक्रव्यूह
तोड़ता है भीतर का ही अर्जुन,
माटी है और सिर्फ माटी है
हर रोज यहां देखता है
मैं तुम और हम का कुरुक्षेत्र !!

Sundar Rachna...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना!
ReplyDeleteएकदम सच ! शीर्षक की ज़रुरत नहीं है ... आपने बखूबी अपनी बात कह दी ...
ReplyDelete"अंतर्द्वंद"
ReplyDeleteजन साधारण का जीवन संघर्ष देखा दिए हैं आप... टाईटिल का जरूरते नहिं है.. जो जईसा देखेगा, वईसा उसको जिंदगी का रूप देखाई देगा.. बहुत बढिया..
ReplyDeleteआपकी इस सुंदर प्रस्तुति का शीर्षक हो सकता है आधार।
ReplyDeleteजो भीतर है उसे बाहर खोजने की प्रवृति पुरातन काल से हम में है.
ReplyDeleteकस्तूरी मृग का उदाहरण हमारे सामने है .
बहुत सुन्दर कविता जो शीर्षक की मोहताज नहीं.