सुरथ मनु धर्मात्मा राजा थे। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न हो, इसका वह विशेष ध्यान रखते थे। मेधा ऋषि से उन्होंने दीक्षा ली थी। गुरु ने उन्हें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखने का उपदेश दिया। एक दिन किसी सलाहकार ने उनसे कहा, ‘राजा को प्रतिवर्ष अपने राज्य का विस्तार करते रहना चाहिए।’ सलाहकार की बातों ने राजा सुरथ के मन में राज्य विस्तार की आकांक्षा जगा दी। उन्होंने आसपास के अनेक राज्यों को अपने राज्य में मिला लिया। इस सफलता ने उनमें चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा पैदा कर दी। एक बार उन्होंने सेना में वृद्धि कर कोवा विधवंशी नामक राजा पर आक्रमण कर दिया। पर उस राज्य के सैनिकों ने सुरथ की विशाल सेना का संहार कर दिया। सुरथ मनु इस हार से अत्यंत निराश हो गए। एक दिन वह मेधा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उनके चरणों में गिरकर बोले, ‘गुरुदेव, असीमित इच्छाओं के कारण मैं कहीं का न रहा। मैं साधु बनकर आपके चरणों में जीवन बिताना चाहता हूं।’ गुरु ने कहा, ‘मैंने कहा था कि आकांक्षाएं सीमित रखनी चाहिए। राज-मद को पास नहीं फटकने देना चाहिए। तुमने मेरे वचनों का पालन नहीं किया। इसी से तुम्हारी यह दशा हुई है। अब धैर्य रखो।’ गुरु के शब्दों से उनकी निराशा दूर हुई। कुछ समय बाद उन्होंने अपना राज्य फिर से वापस पा लिया। उसके बाद तो सुरथ किसी भी प्रकार की आकांक्षा और मद से दूर रहकर प्रजा कल्याण में लगे रहे।
प्रजा कल्याण
Posted by :मानसी
ON
Monday, June 14, 2010
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