० कुमार प्रमोद




लघुकथा

एक चित्र : कल, आज, कल !


कुमार प्रमोद



कल


हम मित्रों में से एक की शादी तय हुई। उसने उसे गाली दी थी, ‘क्या नया कर रहे हो? शादी तो इस देश में भूखों, नंगों, भिखारियों, बेवकूफ़ो, पागलों की भी होती है। भेड़-चाल.....’ फिर वह घोड़ी पर बैठा, बैंड बजा, शादी हुई, दहेज भी आया - दुल्हन संग। उसने फिर उसे गाली दी। ‘साला.... शादी करता है घोड़ी पर चढ़कर। क्या नया किया बेवकूफ़ ! और फिर दहेज भी। भिखमंगा कहीं का.....डूब कर क्यों नहीं मर गया दहेज लेने की बजाय।’ उसके बच्चे हुए। उसने गालियाँ दी। ‘गधा कहीं का, देश की जनसंख्या बढ़ा रहा है। और कुछ बेहतर करने को नहीं रह गया था क्या ? चलो यह भी सही !’ और .......ऐसे ही।




आज





आज उसकी भी शादी तय हो गई। सभी ने उसे विस्मय की निगाहों से देखा।
‘हाँ, यार अब माता-पिता की मर्ज़ी, पीछे छोटे भाई-बहन हैं। मैं शादी नहीं करूँगा तो उनके लिए मुश्किल होगी।’ फिर वह घोड़ी पर बैठा है, बैंड बाजा बज रहा है। दोस्तों ने शाबाशी दी। ‘क्या करूँ यार, घरवालों की ख़ुशी भी तो कुछ होती है। माँ-बाप की शादी के 30 सालों बाद आज ख़ुशी का बड़ा अवसर आया है, उन्हें भी ख़ुश होने दो - मेरा क्या जाता है।’ फिर दहेज खुल रहा है...... माँ-बहन सभी सम्बंधियों, मित्रों को दहेज दिखाते फूले नहीं समा रही ..... लक्ष्मी है बहू तो, कितना कुछ सहेज कर लाई है अपने संग। वह मित्रों के संग बैठा उनसे आँखें चुराने का प्रयास कर रहा है..... ‘अरे यार ! क्या करें, लड़की वाले माने तब न। कहते हैं अपनी लड़की को दे रहे हैं। अब घर की जायदाद में बेटी का भी कुछ हिस्सा होना चाहिए न। फिर भी यह तो दुनियादारी है। हमारे कहने-करने से छूटती थोड़े ही है।’




कल




फिर उसे भी बच्चे की उम्मीद हुई। ‘अरे भई क्या करें। शादी की है तो बच्चे तो होंगे ही न। अब हमारे अकेले के चाहने से क्या होगा। पत्नी की भी कुछ इच्छा है। घरवाले भी तो चाहते हैं कि उनके आँगन में बच्चे खेलें। हमारा क्या है ? अपन तो सुबह दफ़्तर गए तो देर शाम को लौटे।’ और एक रोज़ वह बच्चे को गोद में उठाए खिलाते हुए, उसके तुतलाहट भरे शब्दों की कामना, उनके भविष्य मे खोया..... यूँ ही बुढ़ापे की लाठी लिए दिखाई दिया। इति.....? आदि.......?



साभार - सृजनगाथा.कॉम दिनांक - 18-06-2010

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(1917-1963)
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