शिव कुमार बटालवी के 75 वें जन्म दिन पर विशेष ।
शुक्रवार 6 जुलाई को अचानक आज की ग़ज़ल पर क्लिक किया। शिव बटालवी के 75 वें जन्म दिन पर आलेख देख हैरत हुई कि मुझसे कैसे चूक हो गई। अपने से वादा किया था कि आज ही जाकर मैं भी कोई रचना डालूंगी। ख़ैर उस दिन नहीं हो पाया। कई वर्ष पूर्व उन पर एक आलेख तैयार किया था, जल्दीबाजी में ढूंढने पर भी नहीं मिला। ख़ैर, यहाँ प्रस्तुत है कुछ रचनाएं जो कभी जनसत्ता कोलकाता में प्रकाशित हुई थीं।

परिचय :-

शिव कुमार बटालवी पंजाबी के अत्यंत लोकप्रिय कवियों में से एक रहे। 23 जुलाई 1936 को गुरदासपुर जिले की शंकरगढ़ तहसील के लोहटिया गाँव(अब पाकिस्तान) में जन्में शिव बटालवी का पंजाबी काव्याकाश में उदय एक पुच्छल तारे जैसा ही था। पंजाबी कविता में विरह का बादशाह कहे जाने वाले इस कवि का निधन 1973 में हुआ। मोहन सिंह और अमृता प्रीतम के साथ पंजाबी कविता की त्रयी बनाने वाले शिव के काव्य संग्रह हैं – पीड़ दा परागा (1960), लाजवंती (1961), आटे दीया चिड़ीयां (1963), मैंनू विदा करो (1964), बिरहा तू सुल्तान व दर्द मंदा दीयां आही (1965)। साहित्य अकादमी और पंजाब सरकार से सम्मानित बटालवी का अंतिम काव्य संग्रह है – मैं ते मैं। प्रस्तुत है उनकी कविताओं का हिन्दी अनुवाद।




(1)

मुझे तेरा शबाब ले बैठा।
रंग गोरा गुलाब ले बैठा।
दिल का डर था कहीं न ले बैठे।
ले ही बैठा, जनाब ले बैठा।
फुर्सत जब भी मिली है फर्ज़ों से
तेरे मुखड़े की किताब ले बैठा।
कितनी गुज़र गई और कितनी है बाकी।
मुझे यही हिसाब ले बैठा।
‘शिव’ को बस गम में पे ही भरोसा था।
गम से कोरा जवाब ले बैठा।



(2)


रोग बनकर रह गया प्यार तेरे शहर का।
मैंने मसीहा देखा बीमार तेरे शहर का।
इसकी गलियों ने मेरी चढ़ती जवानी खाली।
क्यों न करूं दोस्त सत्कार तेरे शहर का।
तेरे शहर में कद्र नहीं लोगो को पवित्र प्यार की
रात को खुलता है हर बाज़ार तेरे शहर का।
फिर मंज़िल के लिए इक क़दम भी न चला गया
कुछ इस तरह चुभा कोई ख़ार तेरे शहर का।
मरने के बाद भी जहाँ न कफ़न हुआ नसीब
कौन पागल करे ऐतबार तेरे शहर का।
यहाँ मेरी लाश तक नीलाम कर दी गई
उतरा न कर्ज़ फिर भी पार तेरे शहर का।



(3)


जांच मुझे आ गई गम खाने की।
धीरे-धीरे दिल बहलाने की।
अच्छा हुआ तुम पराए हो गए
ख़त्म हुई फ़िक्र तुम्हें अपनाने की
मर तो जाऊं मगर डर है दमवालों
मिट्टी भी बिकती है मोल शमशान की।
न दो मुझे साँसे उधार दोस्तो
लेकर फिर हिम्मत नहीं लौटाने की।
न करो ‘शिव’ की उदासी का इलाज
रोने की मर्जी है बेईमान की।।

 


(4)

मुझे तो मेरा दोस्त, तेरे गम ने मारा।
है झूठ तेरी दोस्ती, के गम ने मारा।।
मुझे तो ज्येष्ठ आषाढ़ से कोई गिला नहीं।
मेरे जमन को कार्तिक की शबनम ने मारा।।
अमावस की काली रात को कोई नहीं कसूर।
सागर को उसकी अपनी पूनम ने मारा।।
यह कौन है जो मौत को बदलाम कर रहा है?
इंसान को इंसान के जनम ने मारा।।
उदित हुआ था जो सूरज, अस्त होना था उसे अवश्य।
कोई झूठ कह रहा है कि पच्छिम ने मारा।।
माना कि मर चुके मित्रों का गम भी मारता है।
ज़्यादा पर दिखावे के गम ने मारा।।
कातिल कोई दुश्मन नहीं, मैं कहता हूँ ठीक।
‘शिव’ को तो ‘शिव’ के अपने गम ने मारा।।


साभार- जनसत्ता सबरंग, कोलकाता, 21 अगस्त, 1994
अनुवाद - नीलम शर्मा 'अंशु '




1 comments:

  1. शिव कुमार बटालवी पर यह अलेख और अनुवादित रचनाएँ अच्छी लगी. आभार.

    ReplyDelete

Although the Devil be the father of lies, he seems, like other great inventors, to have lost much of his reputation by the continual improvements that have been made upon him.
Jonathan Swift
(1667-1745)
Discuss