सवर्ण देवता दलित देवता [कहानी] - एस आर हरनोट

मैं तकरीबन आधी रात को लौट आया। यह लौटना अत्यन्त तकलीफ देह और अप्रत्याशित था। मेरे पास न तो कोई रोशनी का प्रबन्ध था और न ही किसी घर से रोशनी मांगने की होश ही रही। विचलित मन। आक्रोश और भय से मिश्रित। चार-पांच किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद सीधे रास्ते में पहुंचा तो पीछे देखा। आश्चर्य हुआ कि इतने गहरे अन्धेरे में पांव न लगी पगडंडी से मैं कैसे आ गया। कन्धे पर हाथ गया। फिर दांईं तरफ नीचे लटके झोले की डोरों से सरकता हुआ भीतर तक। ऊपर पट्टु था। उसके नीचे झोली में शहनाई। इसी का डर था कि कहीं हड़बड़ी और गुस्से में शहनाई को ही तो नहीं भूल आया। 

मैं अंधेरे में एक जगह खड़ा हो गया। दूर-पार घाटियों की तराइयों में नजर गई। छितराए घरों में कहीं-कहीं रोशनी टिमटिमाती और बुझ जाती। जुगनुओं की तरह। आसमान की तरफ ध्यान गया। सिर के बिल्कुल ऊपर से आकाश गंगा ने एक लम्बा चौड़ा रास्ता बना लिया था। दादी की कई कहानियां याद आईं और बिजली की लपलपाहट की मानिंद अंधेरे में लुप्त हो गईं। लगा जैसे बाहर के अन्धेरे से मन का अन्धेरा कहीं गहरा है। इधर-उधर देखते ही डर भी लगता। कई बार तो किसी झाड़ी, चट्टान या झुरमुट पर नजर पड़ती तो आभास होता कि कोई जानवर बैठा मेरी तरफ सरकता आ रहा है। अभी मुझ पर झपट पड़ेगा। कभी महसूस होता कि वही आकृति अंधेरे में ऊपर की तरफ उठ रही है जिसका न कोई सिर है न पैर। कोई भूत तो नहीं....? सोच कर बदन कांपने लग जाता। 

रचनाकार परिचय:-


श्री एस.आर. हरनोट का जन्म जनवरी, 1955 में हिमाचल प्रदेश के शिमला जिल की पिछड़ी पंचायत व गाँव चनावग में हुआ। बी.ए. ऑनर्ज़ एम.ए.(हिन्दी), पत्रकारिता, लोक-सम्पर्क एवं प्रचार-प्रसार में उपाधि पत्र प्राप्त करने वाले श्री हरनोट प्रदेश तथा देश से प्रकाशित होने वाले हिन्दी के समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में इतिहास, संस्कृति, लोक जीवन और विविध विषयों पर नियमित लेखन करते रहे हैं। इनकी कहानियाँ कई संपादित संग्रहों में शामिल हो चुकी हैं तथा अंग्रेजी, मराठी, कन्नड़, पंजाबी और गुजराती, तेलगू सहित कई अन्य भाषाओं में इनकी कहानियों के अनुवाद भी प्रकाशित हुये हैं। अब तक इनके कई कहानी संग्रह, "हिडिम्ब" नामक उपन्यास, हिमाचल प्रदेश के मंदिरों व लोक-कथाओं पर एक शोध तथा एक यात्रा-संस्मरण प्रकाशित हो चुके हैं। 

"दारोश तथा अन्य कहानियाँ" कहानी-संग्रह के लिये इन्हें २००३ का अंतर्राष्ट्रीय इंदु-शर्मा कथा सम्मान तथा २००७ में हिमाचल राज्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। इसके अतिरिक्त इन्हें अखिल भारतीय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवार्ड, हिमाचल गौरव सम्मान व हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा साहित्य सम्मान सहित कई अन्य सम्मान और पुरुस्कार भी मिल चुके हैं। 

वर्तमान में आप हिमाचल प्रदेश पर्यटन विकास निगम में अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।
हल्की सी आहट हुई। सचमुच कोई छोटा जानवर मेरे होने के एहसास को परखता या अपने आप में भयाक्रान्त नीचे कूदा था। मेरे दांत बैठ गए। दंदकुशकें बट गईं। मुंह खोलने का प्रयास किया पर खुला नहीं। जीभ कहीं तालू में फंसती महसूस हुई। शरीर में ऐसी सिहरन हुई मानो किसी ने सिर पर ठंडे पानी का घड़ा उड़ेल दिया हो। उसके बाद एक अजीब सी गंध नाक में पसर गई। पिता की बात याद आ गई। वे बताया करते कि आधी रात को यदि मर्द कहीं रास्ते में अकेला चल रहा हो तो उसका साथ बाघ देता है। उससे डरना नहीं चाहिए। उनके साथ ऐसा कई बार हुआ था। पहले तो बाघ की कल्पना मात्र से पानी-पानी हो गया। लेकिन साथ देने की बात ने मन में एक भरोसा भी पैदा कर दिया। एकदम मुंह से देवता का नाम निकला......। भय ने देवता की अचानक याद दिला दी। 

गांव अब कुछ दूरी पर था। इतनी रात घर पहुंचूंगा तो पिता क्या कहेंगे? मां और दादी क्या सोचेगी? इसका ख्याल करते-करते एक जगह विवशत: चट्टान पर बैठ गया। जगह खुली थी। तारों की संयुक्त झिलमिलाहट ने आंखों का अंधकार कुछ कम कर दिया था। बैठते ही ठंडी हवा के स्पर्श ने मन को थोड़ा हल्का किया। माथे और मुंह पर सिकुड़न सी हुई। पसीना सूखने की चिपचिपाहट। कुछ इसी तरह पूरे शरीर में भी महसूस हुई। एक ही सांस में इतना रास्ता तय करने के बाद जो गर्माहट और खुलापन शरीर में था वह कम होने लगा। सर्दी से बचने के लिए झोले से पट्टु निकालकर ओढ़ लिया।  
पिछली शाम लीला दास शर्मा के यहां देवता गया था। उसने अपनी किसी मन्नत पूरी होने पर देव जातर मानी थी। उसके यहां दो और देवताओं के रथ भी आए थे। यानी तीन देवताओं की जातर थी। मुझे पिता ने पहली बार देवता के साथ भेजा था। उनका अब यह विचार था कि मैं ही देवता की कार निभाता रहूं। सेवा करता रहूं। मुझे अब आठवीं के बाद पढ़ाने का भी मन न था। जबकि मैं आगे पढ़ना चाहता था। पिता होश संभालते ही देवता की सेवा में लग गए थे। देवता के साथ रहते हुए हर अच्छे-बुरे को सहा, लेकिन कभी जुबान नहीं खोली। न ही कभी कुछ घर में बताया। उनका काम देवता के बजंतरियों (वादकों) के साथ शहनाई बजाने का था।  

वे गांव-परगने में शहनाई के माहिर थे। उन जैसा शहनाईया हरिजन बिरादरी में कोई दूसरा न था। देवता के साथ ही नहीं बल्कि शादी-ब्याह में भी उन्हें दूर-दूर तक लोग ले जाते थे। पैसे की भी उनकी ज्यादा मांग नहीं रहती। जिसने जो दे दिया सिर-माथे। न कोई लालच न ही किसी चीज की अधिक चाहत। बस लोगों के मुंह से बड़ाई के दो बोल सुन कर ही खुश हो जाते कि वह एक काबिल और बेजोड़ शहनाई मास्टर है। लोग तारीफों के पुल बांधते तो वह ध्याड़ी तो क्या रोटी खाना भी भूल जाते। सचमुच ईश्वर ने उन्हें इस कला में खूब पारंगत भी बनाया था। वे इसे मां सरस्वती की कृपा मानते। देवता का आशीर्वाद मानते.....और मन से सेवा में लगे रहते। 

उनकी इच्छा थी कि मुझे अपनी तरह कलाकार बनाएं। एक अच्छा और बेहतर शहनाई मास्टर। लेकिन मेरा उस तरफ कोई ध्यान नहीं था। मैं अक्सर उन्हें निवेदन करता कि मुझे कम से कम दस तो पढ़वा दें। गांव में आठवीं तक का ही स्कूल था। दसवीं के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। लेकिन गरीबी के कारण उनकी हैसियत इसका दायित्व लेने की नहीं थी। मन से वे चाहते भी थे कि मुझे खूब पढ़ाएं-लिखाएं, लेकिन कई कारणों से वे टालते गए। एक कारण शायद गांव के सवर्णों का दबाव भी था। गरीबी का कारण तो समझ आता था जिसे मैं भी मानता था। लेकिन दूसरी बात मेरे गले कभी नहीं उतरी। फिर उस गांव में शायद मैं पहला दलित लड़का था जिसने आठवीं प्रथम श्रेणी में पास की थी। मैं बोर्ड की परीक्षा में अपने जिले में भी प्रथम आया था। जबकि मेरे साथ सवर्णों के कई लड़के फेल हो गए थे। 

शहनाई बजाने का कोई शौक भी न था। कभी-कभार स्कूलों के कार्यक्रमों में बांसुरी और शहनाई अवश्य बजाया करता। मुझे कोई खास स्वरज्ञान भी न था। न ही तालों की समझ। फिर भी मैं बहुत अच्छी शहनाई बजा लेता और पिता उस स्कूली शौक में मेरे भीतर अपना कलाकार तलाशने लगते। कई टूर्नामैंटों में मुझे इनाम भी मिले थे। वे इसमें होनहार बिरवान के होत चिकने पात वाली बात देखने लगे थे।  

हालांकि मैं पिता जी का बहुत आदर करता था पर हमारे बीच अक्सर झड़पें हो जाया करतीं। उनका गांव के ब्राह्मणों और ठाकुरों के प्रति अतिरिक्त आदर इसका मुख्य कारण था। बचपन से होश संभालने तक मेरे साथ कई घटनाएं ऐसी घटी थीं जिन्होंने मेरे मन में नफरत के बीज रोपित कर दिए थे। एक घटना तो बार-बार आंखों के सामने आ जाती और पिता जब भी मुझ से कोई बात करते तो वह दीवार बन कर हमारे मध्य खड़ी हो जाया करती।  

जब मैं पांचवीं में पढ़ता था एक दिन उनके साथ देवता के मन्दिर चला गया। शायद सक्रान्त का दिन था। उस रोज गांव-परगने के इलावा दूर-दूर से भी लोग पंची-पंचायत करने पहुंचे होते। उनमें ज्यादातर वे लोग होते जो अपने और अपने परिवार को भूत-परेतों द्वारा परेशान किया बताते और देवता से उसे भगाने की फरियाद करते। साथ ही अपनी गाय-भैंसों के लिए भी रक्षा के चावल लेते। कई बार तो लोग अपने सिर और पेट तक की दर्द के निवारण के लिए देवता के पास गुहार लगा देते।  

देवता की पंचायत एक विशेष कार्यक्रम के आयोजन से होती। समय दोपहर बाद का रहता। बजंतरी देवता के सारे वाद्य बजाते। उनके साथ पिता शहनाई बजाते। जब वाद्यों का बजना उत्कर्ष पर होता तो मुख्य गूर (देवता का प्रतिनिधि जिसके द्वारा देवता बोलता है) में हल्की-हल्की कंपन होने लगती। कुछ देर बाद उसका पूरा शरीर कांप जाता। फिर वह झटके से सिर हिला देता। उसकी टोपी गिर जाती और औरतों की तरह रखे लम्बे बाल बिखर जाते। वाद्य बजते रहते। गूर का शरीर अब पूरी तरह देवछाया के वश में हो जाता। उसकी आंखों में खून तैरने लगता। चेहरा काला हो जाता। इसके बाद दूसरे सहायक देवताओं के गूरों में भी अलग-अलग देवता प्रवेश करते और वे भी पूरी तरह कांपने लग जाते। उनके हाथों में लोहे के विशेष शंगल होते। वे उन्हें कांपते हाथों में पकड़ते, हिलाते रहते और अपनी पीठ पर मारते रहते। यह क्रिया तीन या पांच बार की होती। जमीन पर मुंह लगाकर जोर से किलकें देते, लम्बी हू की आवाज करते।  

फिर मुख्य देवता का गूर जमीन पर जोर से अपना हाथ मारता और कहता......"रख्खे......"। इसका मतलब होता "रक्षा" ....और इसी के साथ दूसरे गूर भी वैसा ही करते। देवता के इस आयोजन को नियंत्रित करने के लिए पांच पंच आसपास बैठे होते। अब बारी-बारी लोग आते और अपनी पंची-पंचायत करवाते। अपनी समस्या बताते। मुख्य गूर उनका दु:ख-दर्द सुनता और उपाय बताने लगता। समस्याओं के निवारण के समाधान देवता कम और पंच कुछ ज्यादा ही बता देते। इनमें देवता की जातर और मन्दिर के पास बकरे की चढ़त और उसकी देवता के लिए बलि देने जैसे उपाय मुख्य रहते।  
उस दिन जब पंची-पंचायत समाप्त हुई तो पता नहीं मुझे क्या सूझी। जाने-अनजाने मन्दिर की एक सीढ़ी पर बैठ गया। पुजारी की नजर पड़ी तो आग-बबूला हो गया। भागता हुआ आया और मेरे गाल पर एक थप्पड़ रसीद कर दिया। फिर बांह से पकड़ा। घसीटते हुए मुझे पिता के पास फेंक दिया। पिता द्वारा बजाए इसका विरोध करने के एक और तमाचा मेरे मुंह पर जड़ दिया। मैं रोता हुआ चला आया, पर वे तमाचे मेरे मन पर स्थायी रूप से घर कर गए। यह बात भी गांव-बेड़ में फैल गई थी कि शहनाईए का लड़का बड़ा कमजात है। इस घटना का प्रभाव कुछ ऐसा हुआ कि मैं अब ब्राह्मणें के बच्चों तक से स्कूल में नफरत करता और गाहे-बगाए उन्हें तंग भी करता। उनके बच्चे तो मुझे जाति के नाम से पुकारते और भद्दी गालियां भी देते रहते। 

एक दिन पूजारी की दूसरी पत्नी, जो जवान और देखने में सुन्दर थी बांवड़ी से पानी लेकर आ रही थी। मैं भी घड़ा उठा कर पानी भरने जा रहा था। हमारा पगडंडी में एक जगह टाकरा हो गया। नीचे-ऊपर होने को कोई जगह नहीं थी। अब मुझे बहुत पीछ लौटना पड़ता। उसके बार-बार कहने पर भी मैं रास्ते में डटा रहा। उल्टा उसे ही पीछे जाने को कहता रहा। जब वह अड़ी रही तो मैं किनारे से आगे निकल गया। फिर क्या था उसने सिर पर उठाई पानी की टोकणी नीचे पटक दी और चिल्लाना शुरू कर दिया। मुझ से रहा नहीं गया। उसके पास आया और प्यार से पूछ लिया, "छोटी पंडताणी, पहले तू एक बात तो बता? मैं तो तेरे में छूआ तक नहीं और तैने इतनी गाली-गलौज शुरू कर दी। उस दिन जो तू अपनी गौशाला के पिछवाड़े जगरू लुहार के लड़के की टांगों के बीच नंगी पड़ी थी, उससे तो तेरे को छोत लगी ही नहीं..?" ढोल की पोल खुल गई। चेहरा तमतमा गया था उसका। इतनी बड़ी बात वह सहती भी कैसे। गांव में फैल गई तो क्या मुंह दिखाएगी। जैसे-कैसे बचाव जरूरी था। उसने रास्ते में गिराई टोकणी अब खेतों से नीचे फैंक दी थी और चिल्लाती घर चली गई। पूजारी से शिकायत लगा दी कि शहनाईए के लड़के ने उसका पानी तो छुआ ही पर हाथापाई भी कर दी। बात पिता तक पहुंची। उस दिन तो मेरी जो धुनाई हुई उसकी दर्दें आज भी महसूस होती हैं।  

अब तो आठवीं तक पहुंचते-पहुंचते मैं कई बार पिता को भी सीख देने लगा था कि वे इनकी इतनी आव-भगत न किया करें। बस पिता इसी बात से चिढ़ जाते। उनको मेरी यही एक बात पसन्द नहीं थी। मैंने अपने आप को पिता की खातिर काफी बदल दिया था परन्तु मन के घाव कभी नहीं भरे। 

पिता कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे। इसी बीच गांव के देवता की जातर का कार्यक्रम बन गया। पिता को बीमारी ने कमजोर भी बना दिया था। उनका सांस भी फूल जाता। इसलिए शहनाई बजाने में उन्हें काफी तकलीफ होती थी। लेकिन देवता के साथ जाने की कार तोड़ना भी मुमकिन न था। जातराओं के लिए तो देवता के साथ तकरीबन हर घर से एक आदमी का जाना जरूरी होता। उसे कोई न कोई काम पहले से ही सौंपा हुआ होता। इस तरह के काम दलित परिवारों के लिए ज्यादा होते। .........और देवता के नाम से कार निभाने के लिए बलि का बकरा आज मैं बन गया था। मुझे न चाहते हुए भी जाना पड़ा।  

देवता की कोठी के पास जब मैं पहुंचा तो पूजारी ने पिता के न आने का कारण पूछा। मेरे बताने पर वह कुछ परेशान हो गया। लेकिन जब मैंने बताया कि आज मैं शहनाई बजाने के काम के लिए आया हूं तो वह विस्मित होकर मुझे देखने लगा। मेरी बिरादरी के कुछ लोगों ने उन्हें विश्वास दिलाया कि लड़का अच्छी शहनाई बजाता है तो वह कुछ न बोला। मैं यह बखूबी समझता था कि मेरा आना उसे अखर रहा था। शायद कहीं उसके मन में यह बात भी उठी होगी कि अच्छा ही है आगे पढ़ने के बजाए मैं शहनाई बजाने का ही काम करूं। इसीलिए कुछ देर के बाद बोलचाल में परिवर्तन हो गया और वह अच्छी बातें करने लगा। पूजारी और देवता के अन्य कारदार अब मुझे एक छोटे शहनाई मास्टर के रूप में देखने लगे थे। कइयों ने तो मुंह पर ही तारीफों के पुल बान्ध दिए। इनमें पूजारी से लेकर देवता के पंचों तक थे। उनके चेहरे पर शायद इस बात की अब कुछ ज्यादा खुशी थी कि पढ़ने के बजाए मैं उन्हीं के बजंतरियों के बीच शहनाई फूंका करूंगा।  

पिता ने मुझे शहनाई बजाने के कुछ गुर भी बता दिए। मसलन जब देवता का रथ मन्दिर से बाहर निकले तो शहनाई में यह गाना बजाना चाहिए। देवता चलने लगे तो वह गीत। देवता की जातर होने लगे और देवता नाचे तो वह धुन तथा जब देवता का हिंगर-हिंगराव यानी पंची-पंचायत हो तो फलां गाना बचाना चाहिए। मेरे लिए यह कोई मुश्किल का काम नहीं था। 
उस घने अंधेरे में बैठे-बैठे मैं वर्तमान से लेकर अतीत की परतों को कुरेदने में उलझ गया था। आज देवता की कार निभाने का पहला दिन और इस तरह का हंगामा? सोच कर ही मैं परेशान हो रहा था। सचमुच देवता की पंचायत जो सजा दे वह तो माननी ही पड़ेगी पर पिता की डांट को सहना मेरे लिए असंभव जान पड़ता। उन्होंने कितनी उम्मीद और विश्वास से मुझे देवता के साथ भेजा था। पर जब उन्हें पता चलेगा कि उनका बेटा पहली बार में ही अपनी करतूत के झण्डे इस तरह गाड़ कर लौटा है तो वह न केवल भीतर तक आहत और अपमानित होंगे बल्कि अब उनका यह विश्वास भी पक्का हो जाएगा कि मैं कभी नहीं सुधर सकता। .....और उनकी बनी-बनाई इज्जत-परतीत को निश्चित तौर से खाई में डाल दूंगा। 

पता नहीं क्यों लीला दास शर्मा के घर देवता पहुंचने के बाद से ही मेरा मन उखड़ा-उखड़ा सा था। हमारे बैठने के लिए आंगन के नीचे खेतों में जहां जगह दी गई वहां कोई अच्छा इंतजाम नहीं था। हालांकि खेत बड़ा था। उसमें पीछे की तरफ छोटा सा तरपाल बांस के डंडों पर लटका दिया था। देवता के रथ रखने और पूजारी, गूर तथा पंचों इत्यादि के लिए अच्छी जगह बनाई थी। उनके लिए बेहतर प्रबन्ध था। हमारी बिरादरी के लोगों के लिए प्राल (पुआल) बिछाई गई थी लेकिन ऊपर कुछ भी नहीं था। न आग ही का कोई इंतजाम था। नवम्बर का महीना था। हमारे पास सर्दी के बचाव के लिए पर्याप्त कपड़े भी न थे। रात भर की ठंड, ऊपर गिरती ओस और पाला, सोच कर ही मैं सिहरने लगा था। 

देवता की पूजा के बाद हम काफी देर तक इस आस में नौबत बजाते रहे कि हमारे लिए कुछ कपड़ों और आग का प्रबन्ध हो जाएगा। पर किसी ने बात तक न पूछी। हमने यह भी सुना था कि यहां की पंडित बिरादरी हरिजनों से कुछ ज्यादा ही नफरत करती है। उन्हें आंगन में भी नहीं मानते। हमारे देखते-देखते देवता के साथ आए सभी सवर्ण बिरादरी के लोगों को रजाईयां, कम्बल और अंगेठी में आग दे दी गई और हम सभी मुंह ताकते रह गए। सर्दी बहुत बढ़ रही थी। अब गुस्सा भी आने लगा था। मेरा गुस्सा लीला दास शर्मा पर कम और अपने देवता के कारदारों पर ज्यादा बढ़ता गया।  

इधर-उधर देखा। मेरे साथ के वादक अपने-अपने वाद्यों की ओट में पट्टु की बुक्कल मारे सो गए थे। पहले सोचा कि जैसे-कैसे रात काट ली जाए। पर मन की बेचैनी नहीं गई। मैंने रथ के साथ सोए पूजारी पर डाली दो रजाईयों में से एक खींची। वह हड़बड़ा कर उठ गया। पहले तो उसे कुछ नहीं सूझा। जब रजाई मेरे हाथ में देखी तो पगला गया। जोर-जोर से बकने लगा। उसकी चिल्लाहट सुन कर सभी उठ गए। जैसे उन्हें सांप सूंघ गया हो या किसी ने ठंडे पानी की बाल्टी उन पर उड़ेल दी हो। हंगामा मच गया। उसका रुख मेरी तरफ था, "ओ छोकरे! तेरा दमाग खराब हो गया। दिखता नहीं तेरे को। यहां रथ रखा है। उसे छू दिया तैने। तेरी हिम्मत कैसे हुई यहां आने की। और रजाई में हाथ लगाने की।"  

मैं इस अप्रत्याशित घटना का सामना करने के लिए कतई तैयार नहीं था। डांट मुझ पर किसी डंडे की तरह पड़ी। मैं कुछ संभलता, लीला दास शर्मा वहां टपक पड़ा। उसने आव देखा न ताव मुझ पर कुत्ते की तरह झपटा, "सालों ने आठ जमात क्या पास कर ली, आसमान में चढ़ने लग गए। तेरे को दिखता नहीं कि नई रजाईयां हैं। तेरे छूने के बाद मैं इन्हें कहां डालूंगा।"  

उसे देवता के रथ की चिन्ता कम और अपनी रजाईयों का फिक्र अधिक था। अब चारों तरफ से गालियों की बौछार होने लगी थी। जितने मुंह उतनी बातें। मेरे साथ जो ढोलिया, नगारची, एक-दो दलित गूर, करनालची इत्यादि थे वे सहमे हुए पीछे खड़े हो गए। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। 

देवता का एक पंच पंडित नारायणू पता नहीं कब उठा और सीधा मुझ पर टूट गया। उसने जैसे ही थप्पड़ मारने को हाथ उठाया मैंने वहीं रोक दिया। झटका इतना तेज था कि वह बांस की कनात से टकराया और ऊपर लगा तरपाल नीचे गिर गया। किसी ने इतना सोचा भी न था कि बात हाथापाई तक आ जाएगी। इससे सारे ब्राह्मण संभल गए। गालियों की जो झड़ी लगी थी वह कुछ थम गई। जो उछलकर मेरी तरफ आ रहे थे वह काफी पीछे चले गए। मेरा चुप रहना मुमकिन नहीं था। मैं कुछ दूर खड़े लीला दास शर्मा के पास गया और उससे सीधे-सीधे पूछा, "पंडत! जितनी गालियां तुमने मेरे को दी वह तो मैंने सहन कर ली। लेकिन मेरी एक बात का जवाब तू दे दे। तू ही क्यों देवता के साथ जो ये पूजारी और पंच आए हैं इनसे भी मैं पूछता हूं कि क्या ठंड बामणों और कनैतों को ही लगती है या कि कोली-चमारों को भी। खुद तो तुम दो-दो रजाईयां लेकर खराटे मारने लग गए और हम लोगों को बैठने के लिए पूरा प्राल भी नहीं। हमारे में भी ऐसा ही दिल है, प्राण है जैसे तुम लोगों में हैं। हमारे पूजारी और पंचों को तो शर्म है नहीं लेकिन पंडित तेरे तो बड़ा कारज है। तीन-तीन देवताओं की जातरा है, तेरे को तो समझ चाहिए थी कि देवता के साथ बाहर की बिरादरी के भी लोग हैं। इस सर्दी में उन्हें भी तो रात काटनी है।"  

मुझे खुद पता नहीं चला कि मैं इतना कुछ कैसे बोल गया। वहां तीनों देवताओं के साथ आए लोग एकत्र हो गए थे। उसका घर दो मंजिला था। उसके साथ दो-तीन और घर थे। शोर सुनकर घरों की औरतें और बच्चे खिड़कियों से झांक कर नीचे देख रहे थे। मर्द और छोकरे-छल्ले आंगन की मुंडेर पर आकर खड़े हो गए। मैं घबरा भी गया था। कहीं सारे ब्राह्मण-कनैत इकट्ठे होकर मेरा हुलिया ही न बिगाड़ दे। अब वहां रुकना खतरे से खाली न था। क्योंकि मैं जानता था मेरे अपने लोग भी मेरा साथ नहीं देंगे। अपना सामान संभाला। मौका देख कर नीचे की तरफ पगडंडी से भागता हुआ सामने की चढ़ाई में चढ़ गया। कुछ छोकरे मेरे पीछे भागे लेकिन अंधेरे में वे अधिक दूर तक नहीं आ सके। बोलचाल अभी भी जारी था। वहां अभी भी हंगामा हो रहा था। जिसके मन में जो आता बकता जाता। 

दूर घाटी से गुजरती सड़क से कोई रात्रि बस सेवा गुजरी। मोड़ काटते हुए उसकी लाइट सीधी मेरे आसपास पड़ी तो मैं चौंक गया। एक पल तो पता ही नहीं चला कि क्या हुआ। दोबारा मोड़ काटते हुए जब उसकी रोशनी सीधी मेरे मुंह पर पड़ी तो मन सहज हुआ। माथे पर हाथ गया तो उंगलियां भीग गई। पसीने से तरबतर। नीचे बूंदें टपक रही थीं। हालांकि मुझे बैठे काफी समय हो गया था लेकिन उस घटना को याद करते हुए स्मृतियों में उसे पूरी तरह दोबारा जी लिया। 

धीरे से उठा। चलना शुरू किया। आसमान की तरफ पुन: नजर गई। आकाश गंगा उत्तर की तरफ चली गई थी। सप्तऋषि तारे पश्चिम की तरफ बढ़ रहे थे। एक बहुत बड़ा तारा चमकता दिखाई दिया। ध्रुव तारा। रात अभी भी काफी है मैंने सोचा। पर घर जाने से कतरा गया। कुछ दूर चलने के बाद फिर एक जगह बैठ गया। 

मेरे सामने कई चीजें एकाएक खड़ी हो गई। सबसे पहले जो बात मन में उठी वह देवता को लेकर थी। यह देवता आखिर है किसका? सवर्णों का या हम सभी का। सचमुच वह देवता है तो सभी का ही होगा। उसे न तो पूजारी या गूर ने कभी प्रत्यक्ष देखा और न ही सरपंचों या कारदारों ने। हमने भी नहीं देखा। बस एक परम्परा तय हुई, उसे पीठ पर उठाए नगाड़ों की तरह हम सभी ढोते चले गए। आज भी निभा रहे हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी। लेकिन क्या इसमें एक खतरनाक साजिश नहीं रची गई ? 
सोचते हुए पहले तो मुझे सचमुच एक झटका सा लगा। मैं अंधेरे में खड़ा हो गया। आसपास कुछ नहीं था। मन का भ्रम........या देवता का डर..या इन तयशुदा परम्पराओं के विरुद्ध जाने का भय......। मस्तिष्क में कई बातें कौंधती रही। 

जिस देवता को छोड़ कर मैं आया हूं। वह तो उसके निशान मात्र है। रथ है। बहुत सुन्दर जिसे दो लम्बी कनातों पर बनाया गया है। कनातें चांदी से मढ़ी हैं। शिखर पर सोने का बड़ा छत्तर है। उसके नीचे मुख्य देवता का एक सोने का मोहरा (देवता का काल्पनिक चेहरा) है। साथ कई सहायक देवता हैं........उसी की तरह बड़ी देहरी के, जिनके मोहरे चांदी और पीतल के हैं। एक मूर्ति याक के बालों के नीचे ढकी रहती है। बताते हैं कि वह किसी रकसीन यानी राक्षसी देवी की है। उसे खुली रखे तो उत्पात मचा देती है। उसकी जिधर भी नजर पड़ी सब कुछ वहीं ढेर। बस सुना है, होते किसी ने कुछ नहीं देखा। चारों तरफ चार छत्त्तर। चादीं से बने हुए। चारों तरफ चांदी की गाची यानी चौड़ी पट्टी है। उस पर गूर और पूजारी के नाम खुदे हैं........जैसे देवता उन्हीं का है। उसमें जो चार-पांच किलो चांदी लगा है वह देवता के नाम का है, निजी तौर पर किसी का भी कुछ नहीं।  

पर देवता के भय से कोई कुछ नहीं कहता न पूछता। पूछे-टोके तो बागी। या देवता के खोट के प्रतिभागी। देवता नाराज तो कौन मनाए। आदमी हो तो सौ उपाए। सब कुछ सिर माथे। मुख्य देवता रथ पर चलता है। उसी में रहता है। उसी पर बैठता है। आलीशान कोठी है। दो मंजिली। जब जातरा नहीं होती, कोई मेला नहीं होता तो उस रथ को खोल दिया जाता है। उसके मोहरे भीतर बनी अट्टालिकाओं में रहते हैं। उनकी रोज पूजा होती है। सुबह-शाम। घी-दूध से। उसके लिए पूजारी नियुक्त है। ब्राहमण पूजारी। दूसरा नहीं हो सकता। देवता नहीं मानता? जब से गांव बसा, देवता आया तभी से एक ही खानदान से पूजारी देवता की सेवा में लगा है। पहले उसका पड़दादा। फिर दादा। उसके बाद वह खुद। आगे उसके बेटे। पोते और पड़पोते।  
मुख्य और सहायक देवताओं के इलावा कई दूसरे देवता भी हैं। हालांकि ये सभी उस देवता के अंगरक्षक या द्वारपाल है। उनकी न तो आलीशन कोठी हैं, न सोने-चांदी के मोहरे हैं। न कोई रथ है। न छत्तर है। न ही कोई पालकी।  

देवता के साथ तीन देवता प्रमुख हैं। इन्हें द्वारपाल कहते हैं। पहला गेट के पास रहता है। उसकी आदमकद काले पत्थर की मूर्ति है। किसी अच्छे कारीगर ने घड़ी है। नंगधड़ंग। कपड़े के नाम से महज लिंग ढका है। न कोई चौबारा है न सिर पर किसी तरह की छत। धारणा यह है कि वह न तो कपड़े पहनता है न मन्दिर में रहता है। उसे नंगापन पसन्द है। बाहर खुले आसमान के नीचे रहना अच्छा लगता है।  

दूसरे द्वारपाल की मूर्ति तक नहीं है। पूजारी बताता है कि उसे अपनी मूर्ति पसन्द नहीं। एक नुकीला लम्बा सा पत्थर जमीन में स्थापित है। चारों तरफ एक चबूतरा सा बनाया गया है। वहां कई लोहे के कड़ोले रखे हैं। उसी तरह के पहले द्वारपाल के गले में भी है। बाहों में भी है। आसपास भी है। 

तीसरे द्वारपाल की निशानी एक लोहे की गुरज है। मोटी लम्बी। उसे जमीन में गाड़ा गया है। 

इन द्वारपालों को सोना नहीं चढ़ता। दूध नहीं चढ़ता। घी के दिए नहीं जलाए जाते। चाहे ब्राह्मण हो या दलित, जब कोई मन्नत करते हैं तो उनकी हैसियत देख कर। यानी द्वारपालों को अनछाणा आटा लाएंगे। लोहे के कड़े वे भी अनगढ़े हुए। दिया जलाना हो तो सरसों के तेल का। उसके लिए भी शुद्ध सरसों का तेल नहीं खरीदेंगे। जो सबसे घटिया होगा, सस्ता होगा उसे ले आएंगे। उन्हे घी से बनी कढ़ाई भी नहीं दी जाएगी। भोग के नाम से कच्चे आटे के रोट। न गरी न चुहारे। न केसर न सुपारी। न ही कोई कपड़ा। कपड़ा जितना आएगा वह बड़े देवता के रथ के लिए। उसी को ही सोना, चांदी, दूध और घी। यानी जिसकी जैसी हैसियत वैसा चढ़ावा।  

इतना ही नहीं उनके लिए गूर भी उसी तरह के। मुख्य देवता का गूर ब्राहमण। उसका दर्जा भी उतना ही बड़ा। उतनी ही इज्जत-परतीत। ऊंचा आसन। और जो द्वारपाल यानी दूसरे सहायक देवता उनके गूर दलित। वैसे ही स्थान। उतनी ही इज्जत-परतीत। उतना जैसा बोलबाला। गूर होने पर भी मंदिर का बरामदा तक छू लें तो दंडित।  

बुजुर्ग बताते हैं कि गांव का मुख्य देवता हम सभी का इष्ट है। कुल देवता है। पर हमें कभी मन्दिर की दहलीज तक भी जाना नसीब नहीं। मन करता है कि भीतर जाकर हम भी घी का दिया जलाएं। धूप दें। बैठ कर उसकी पूजा करें, लेकिन हमारे लिए सब कुछ निषेद्ध। प्रतिबन्धित। बस दूर से हाथ जोड़ो और मन की मुराद पूरी। ज्यादा ही लोभ है तो बाहर बिठाए द्वारपालों के पास मथा टेको, रोट-आटा चढ़ाओ और मन्नतें मांग कर चलते बनो।  

देवताओं में भी दलित देवता.....? सवर्ण देवता.....? सवर्ण तो फटाफट सीढ़ियां ऐसे चढ़ेंगे जैसे ये देवता इन्हीं के टब्बर-बिरादरी से हैं। पर इसमें शंका भी क्या....? जिस अधिकार से जाते हैं होगा ही। दलितों के लिए तो द्वारपाल यानी दलित देवते बाहर नंगधड़ग खड़े हैं। सर्दी में भी। गर्मी में भी। पाला भी उन्हीं के ऊपर। आंधी-तूफान भी इन्हीं पर। न कपड़ा-न लत्ता। बस घटिया से लोहे की तारों से बनाए कड़ोले। एक चढ़ा दो तो बेचारे प्रसन्न। पर आलीशान कोठी में बसा मुख्य देवता तो नहीं लेगा न लोहे का कड़ोला। किसी की हिम्मत जो उसे चढ़ा दे। नहीं तो उम्र भर खोट-दोष का भागी।  
देवता की कथा याद आ रही है। पिता सुनाते हैं कई बार। गांव में देवता कैसे आया। मन्दिर कैसे बना। किसने पहली बार उसे देखा। एक रात एक तुरी यानी ढोल बजाने वाला ब्याह-शादी बजा कर अपने घर लौट रहा था। गांव से कुछ दूर पहुंचा तो झाड़ियों में किसी के कराहने की आवाज सुनाई दी। वह पहले खड़ा रहा। आवाज बन्द हो गई। चलने लगा तो आवाज फिर आने लगी। पहले उसने सोचा कि कोई छल हो रहा होगा। लेकिन आवाज आदमी के कहराने की थी। उसने हिम्मत की और झाड़ियों के बीच चला गया। जमीन से आवाज सुनाई दी। एक जगह कुछ पत्थर पड़े थे। उसने पत्थर किनारे किए। आवाज फिर भी बन्द न हुई। ढोल बजाने की एक छट्टी निकाल कर जमीन कुरेदने लगा। कुछ देर बाद उंगलियां किसी चीज से टकराई। वहां उसे चिपचपाहट महसूस हुई। दियासिलाई जला कर देखा तो वह खून था। घबरा गया। चमत्कार....? पहले रुका। फिर हिम्मत बांध कर मिट्टी इधर-उधर करता गया। किसी कठोर चीज से हाथ टकराया। एक पत्थर की पिंडी थी जिससे खून बह रहा था। मफलर उसमें बांध दिया। कहराना बन्द हो गया। खून भी अब नहीं निकल रहा था। कुछ देर बाद घर आ गया। 

रात को उसे स्वप्न हुआ। एक आदमी सफेद घोड़े पर सवार आंगन में खड़ा है। माथे पर बड़ा सा तिलक। लम्बे बाल। बड़ी-बड़ी आंखें। घुटनों तक लटकती बाहें। सिर पर वही मफलर। निर्देश दे रहा है कि उसका मन्दिर उसी जगह बनाए। नहीं तो गांव का सर्वनाश। वह देवता है। महाभारत काल का देवता। पांडवों की तरफ से लड़ा था युद्ध में। गांव में बसना-रहना चाहता है। 

पहले भी कई घटनाएं घट चुकी थी। जहां तुरी को पिंडी मिली थी वहां सुई हुई गाए चली जातीं और खड़ी हो जाया करती। उनके थनों से स्वत: ही दूध चूने-गिरने लगता। गाय खाली थन लिए घर लौटतीं। गावों वाले कई दिनों से परेशान कि आखिर माजरा क्या है? 

जब दूसरे दिन तुरी ने गांव में बताया तो सभी उस तरफ चले गए। लोगों ने देखा कि एक गोल पिंडी काफी बाहर निकल गई है और तुरी का मफलर भी उस पर बंधा है। उसके बाद गांव के लोगों ने वहां मंदिर बनाया। गर्भगृह में वही पिंडी स्थापित की। उस देवता की छाया भी उसी तुरी में आई। कई बरसों तक वह गूर रहा पर उसके मरने के बाद पता नहीं कैसे मन्दिर पर सवर्णों का कब्जा हो गया..? 

आज जिन तुरियों के पुण्य से वह देवता गांव में प्रकट हुआ था वे उसके मन्दिर तक को नहीं छू सकते। अछूत हो गए और ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व देवता पर भी स्थापित कर लिया। उस तुरी को कोई याद तक न करता। हां जब शहनाई, ढोल बजाने या नगाड़ा उठाने की बारी आती है तो पूजारी-पंच उस तुरी की दुहाई अवश्य देते हैं कि देवता को वे कितने प्यारे हैं। उनके बिना देवता एक कदम भी नहीं चल सकता। वे यदि देवता के कामकाज से पीठ फेरेंगे तो देवदोष के भागीदार।.......सचमुच मेरी हंसी निकल गई। मैं जैसे सपनों में ही हंसता रहा। 

रात का कोई पंछी आया और मेरे सिर के ऊपर से स्पर्श करता नीचे घाटी में उतर गया। उसकी आवाज कई पल मेरे कानों में सरसराती रही। उसी क्षण एक गीदड़ बोला, फिर दूसरे गीदड़......उनकी आपस में जैसे होड़ लग गई। हू....हू.......हू हू हू। फिर दूर-पार से कई कुत्तों के भौंकने की आवाजें।  

मैं क्या सोचने लगा हूं.......? सोच रहा हूं....? पर इसमें गलत भी क्या है ? गांव में इन सवर्ण पूजारियों और गूरों का ही तो बोलबाला है। वर्चस्व है। देवता के नाम पर ऐश.....? आप इनसे कभी मिलें तो जानेंगे कि अपने परिक्षेत्र में ये भी किसी मत्री या अफसर से कम नहीं। कोई नोकरी नहीं। चाकरी नहीं। बस पीढ़ी दर पीढ़ी देवता के पूजारी या गूर। गांव में सबसे ज्यादा हैसियत है उनकी। साहूकारी अलग चलती है। दबदबा बाकी का। जो कुछ दलित वे इनकी नोकरी-चाकरी में। देवता के द्वारपालों की तरह।.....घर में भी राजे और देवता के साथ बाहर भी। रोटी तब तक नहीं खाएंगे जब तक बकरे का मीट और बोतल दारू न मिले। देवता के नाम पर सब कुछ माफ.....? 

सोचते जाएं तो संदेह होता है कि सदियों से परम्परा के नाम पर हम दलित बेचारों के खिलाफ कोई साजिश तो नहीं ? अच्छे और सम्माननीय काम सवर्णों के लिए और गए-गुजरे दलितों के लिए। अब अगर मैंने ठंड से बचने के लिए एक रजाई मांग ली तो क्या गुनाह कर दिया? आदमी तो हम भी है। उन्हीं की तरह जीव है हमारे भीतर भी। उस पर इतना बवेला। पिता के साथ भी ऐसा ही होता होगा। पर देवता के भय और इन बड़ों को मान-प्रतिष्ठा देते-देते वे सठियाते गए पर जुबान न खोली। चुप रहो तो आप सबसे बढ़िया शहनाईए, ढोलिए, नगारची और इल्मदार। अपने हक की बात करेंगे तो आप कोली, चमार, डुमणे और चनालों की औलादें। हरामी, बतमीज.......पढ़ लिख कर बिगड़ते बदमाश?  

सोच कर खून खौल गया था मेरा। जोर से एक पत्थर पर हाथ मार दिया। हड्डी टूटने से बच गई पर काला निशान अभी तक भी नहीं गया। इस सोच में डूबा मैं आधी रात तो काट गया, पर घर पिता के सामने जाने की हिम्मत नहीं हुई। बैठा भी कितनी देर रहता। इतना समय तो रात के सहारे काट लिया। अब तो भोर होने लगी थी। सुबह का तारा भी काफी ऊपर आ गया था। पर धूरें अभी भी काले बादलों से ढकी थीं। मेरे पास न तो कोई बहाना था न ही कोई वास्तविक कारण कि मैं देवता को छोड़ कर कैसे चला आया। 

घर पहुंचा तो पहला सामना पिता से ही हुआ। मुझे देख कर वह ऐसे सहमे मानो सामने कोई बाघ-तेंदुआ आ गया हो। उनके मुंह से अचानक निकला, "तू......इतनी सुबह?"  
"हां पिता जी।"  
"पर क्यों ? जातर तो दिन भर है। देवता के साथ क्यों नहीं लौटा?"  

पहले सोचा कोई झूठ-मूठ का बहाना बना कर बात टाल जाऊं। पर अच्छा नहीं लगा कि पिता से यह सब कर सकूं। आखिर मैंने कोई गुनाह तो नहीं किया। न ही ऐसा कोई पाप किया। सच बोल दिया। पिता ने सुना तो आग बबूले हो गए। बरस पड़े मुझ पर। 

"तू बड़ा आया तीसमार खां। पूजारी से लड़ गया। जानता नहीं अपनी औकात। मैंने आज तक जितणी इज्जत कमाई पल में गंवा दी। हे भगवान पता नहीं अब क्या होगा। क्या बोलेंगे लोग कि फलां शहनाई मास्टर ने ऐसी औलाद पैदा की....। तेरे को आठ क्या पढ़ा दी कि तू देवता के पूजारी गूर से ही उलझने लगा। सच बोलते थे ये लोग कि पांव की जूती पांव में ही जचती है, सिर पर नही।"  

पिता जी पूरी तरह बिफर गए थे। मैं पहले जुबान खोलना नहीं चाहता था, पर इतना कुछ सुन कर चुप नहीं रहा गया। 
"मैं आपसे क्षमा चाहता हूं पिता जी। सच तो यह है कि आपकी इज्जत कोई नहीं करता। आप भले ही बड़े शहनाई मास्टर हैं पर हैं कोली-चमार ही। आपकी इज्जत इसलिए रही कि आपने कभी इन के आगे जुबान नहीं खोली। दरवाजे पर टुकड़ा दिया चाहे दहलीज के बाहर, आप कबूलते रहे। पर इनकी नफरत की नजरों ने आपको कभी जख्मी नहीं किया। देवता के साथ इतने सालों से चल रहे हैं आप। एक रुपया दिया तो वह सिरमाथे। दो रुपए दिए तो भी कबूल। खेत-खलिहान में सुलाया वह भी ठीक, ऐसे ही रात बितानी पड़ी तो वह भी गनीमत। पर क्या हमारी बिरादरी ये सब सहने के लिए ही हैं। हमारी न कोई इज्जत, न परतीत। न हम अपने लिए कुछ मांग सकते न बोल सकते। हम इस तरह इनसे दब कर कब तक रहेंगे ..?"  

मेरे गाल पर इतना जोर का तमाचा पड़ा कि मैं गिरते-गिरते बच गया। भीतर से मां दौड़ती हुई आई और उन्होंने मुझे सम्भाल लिया। पिता अभी भी बड़बड़ाए जा रहे थे। मां की समझ में कुछ नहीं आया कि आखिर बात क्या थी। वे मुझे घसीटते हुए भीतर ले गई। 

सारा दिन मन उदास रहा। पता नहीं अब देवता कमेटी की तरफ से क्या सजा मिलेगी ? सोचकर परेशान हो जाता। शाम ढलते ही देवता लौट आया था। बाजा सुनाई दिया तो दिल धड़क गया। एक लड़का भागता हुआ हमारे यहां आया था। उसने पूजारी का संदेश पिता को दिया कि उन्हें कोठी के पास बुलाया है। मुझे सुनाई दिया तो जैसे काठ मार गया। पिता तो बौखला ही गए। बोलते रहे.......पता नहीं इस नालायक की बजह से क्या सुनने को मिलेगा। क्या सजा भुगतनी पड़ेगी। कहीं मिलने-बरतने से बाहर ही न कर दें।  

मैं भी घबरा गया था। कहीं देवता कमेटी ने कोई सजा तय कर दी तो हमारी इतनी हैसियत भी नहीं कि हम उसका विरोध कर सके। फिर देवता कमेटी का फैसला तो देवबोल। उसके खिलाफ तो न फरियाद न कोर्ट कचहरी में अपील। मैं किसी बुरे अंजाम के बारे में सोच कर घबरा जाता।  

अचानक शिब्बु मिस्त्री की याद आ गई। कलेजा मुंह को आने लगा। कहीं आज देवता कमेटी द्वारा उस जैसी सजा सुना दी तो.......? मेरी आंखों के सामने वह पूरी घटना एक वृतचित्र की तरह घूमने लगी।........दो साल पुरानी बात है। ठाकुर रामसिंह के यहां देवता गया था। ठाकुर पंचायत का सरपंच भी था। शिब्बु मिस्त्री की कोई पुरानी मनौती होगी। उसने पैसे सांज-सांज कर देवता के लिए एक चांदी का बड़ा छत्तर गढ़ाया था। बुढ़ापे में आंखों की नजर भी कमजोर हो गई थी। उसने सोचा कि क्यों न अपनी मन्नत वहीं देकर निपटा लें।  

ठाकुर के घर पहुंचा तो उस समय देवपूजा हो रही थी। पूजा समाप्त हुई तो लोगों ने श्रद्धानुसार देवता को चांदी, सोना और पैसे चढ़ाने शुरू कर दिए। एक किनारे वह भी खड़ा था। पता नहीं क्या हुआ। उसे हल्का सा धक्का लगा और देवता के रथ के साथ गिर गया। पर संभल भी जल्दी गया था। उसका हाथ भर रथ से छू गया। फिर क्या था पूजारी और देवता के पंचो सहित ठाकुर रामसिंह ने सिर पर पहाड़ उठा दिया। उन्होंने उस गरीब हरिजन को बेसब्री से पीटा। भद्दी-अश्लील गालियां दीं। उसके नाक-मुंह से खून निकलने लगा। वहां ऐसा कोई नहीं था जो उस का पक्ष लेता। तरह-तरह की बातें होने लगी।.......हरामजादे ने देवता का रथ अपवित्र कर दिया। अब जातर नहीं हो सकती। इसकी कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। फिर पिता ने ही बीच-बचाव किया था। 

लेकिन रथ को पवित्र करने के लिए बतौर सजा तत्काल एक बकरा देना तय किया गया। अब बेचारा शिब्बु बकरा कहां से देता। जो कुछ पैसा सांजा था उसका देवता के लिए छत्तर लेकर आया था। अपनी गौशाला में भी अब कोई पशु-बकरी नहीं था। जब उसने हाथ जोड़ कर असमर्थता प्रकट की तो उसी की बलि देने तक की बातें होने लगी। वह घबरा गया। पिता ने ही उसकी मदद की। उसी गांव में अपनी जान-पहचान से एक बकरा ले लिया और उसकी कीमत के दो हजार रुपए की खुद जमानत दे दी। शिब्बु मिस्त्री ने जो चांदी का छत्तर लाया था उसे स्वीकार करके देवता के रथ में लगा दिया गया। उसकी जान तो बची पर उसे अपने गांव से बेदखल कर दिया गया। इसमें पिता भी कुछ न कर सके। उसके बाद शिब्बु कहां गया किसी को कुछ पता नहीं। उसकी घरवाली भी बूढ़ी थी। वह उसे भी कहीं साथ ले गया। उसके पास दस-बारह बीघे जो जमीन थी उसे देवता कमेटी ने अपने नाम कर लिया। अब उस पर देवता के एक ब्राह्मण पंच का कब्जा है।........शिब्बु हरिजन का चांदी देवता को भा गया। उससे रथ अपवित्र न हुआ। एक ब्राह्मण उसकी जमीन बाह-खा रहा है उसे भी कोई छोत नहीं लगी। पर बेचारा शिब्बु.............? मैं तो सोच कर ही जैसे पागल हो रहा था। कहीं इसी तरह की सजा आज पिता को मिल गई तो........? 

पछतावा भी हो रहा था कि एक छोटी सी बात के लिए इतना हंगामा मचा दिया। क्या जरूरत थी ? सोया पड़ा रहता चुपचाप। मेरे में ही क्या सुरखाब के पर लगे थे। दूसरे भी तो लोग थे मेरे साथ। मैं ही कौन सा घी-दूध का बना था जो पिघल जाता। अपनी औकात में रहता। जैसे वह द्वारपाल गेट पर खड़ा रहता है। उसका गूर दूर खेलता है। उसने तो कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की कि वह नंगा है या उसके शरीर पर कपड़ा नहीं है। सचमुच तुझे प्रणाम है देवता.......क्यों तूने मुझे भी अपनी तरह थोड़ी सी शान्ती या अक्ल नहीं दी कि मैं भी ....? पर अब जो हो गया था उसका कोई समाधान नहीं था। अब बात देवता कमेटी पर थी। 

देर रात पिता लौटे तो काफी परेशान और उदास थे। उन्होंने किसी से कोई बात नहीं की। न ही मन लगा कर खाना ही खाया। सो भी जल्दी गए थे। मुझे शंका थी कि मेरी फिर शामत आएगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैं भी रात भर करवटें बदलता रहा। सोचता रहा कि देवता कमेटी ने क्या सजा दी होगी? पिता भी शायद नहीं सो पाए। उनका बार-बार उठना, बाहर जाना और खांसना इस बात का गवाह था कि पूजारी ने जरूर कुछ ऐसी बातें की हैं जो उनके लिए असहनीय और अपमानजनक थीं। 

इस बात ने तूल पकड़ लिया था। बात आग की तरह हर जगह फैल गई। जहां देखो यही चर्चा थी। मुझे गाहे-बगाहे खबर मिल जाती। गांव में तो ब्राहमण और कनैत बिरादरी के लोग मुझे देख कर ही मुंह चिढ़ा लेते। सामने से आते तो किनारा कर लेते। कुछ-कुछ अपनी बिरादरी में भी ऐसा ही माहौल था, जैसे मुझे कोई अछूत रोग लग गया हो। मुझे दुख पिता जी का था कि उनके हृदय को बहुत चोट पहुंची है। उनके जख्मों को भरने का मेरे पास न कोई उपाय था न ही अब कुछ कहने की हिम्मत।  

एक दिन फिर देवता की कहीं जातरा थी। एक कारदार गांव-परगने में सभी को बुला गया था। वह पिछली शाम पिता के पास भी आया था।  

पिता सुबह से ही शहनाई का अभ्यास करने लगे थे। उन्होंने शहनाई बड़े दिनों से उठाई थी। वरना सुबह-शाम वे बराबर अभ्यास करते रहते थे। बीमारी के कारण शायद पहले उन्होंने तय किया होगा कि बेटा ही अब इस काम को संभाल लेगा पर उनके मन की वह आस भी जाती रही थी। जब मेरे कानों में शहनाई के पत्तों की पीं...पीं..और चीं...चीं सुनाई पड़ी तो मेरा मन कुछ शान्त हुआ। सोचा कि देवता कमेटी ने शायद कोई कड़ी सजा नहीं सुनाई है। इसीलिए पिता देवता के साथ जाने की तैयारी करने लगे हैं। मुझे भेजने का तो अब सवाल ही न था। उन्होंने अभ्यास तो डट कर किया लेकिन देवता के साथ आज वे भी नहीं गए। कई बार एक लड़का उन्हें बुलाने आया पर हर बार उन्होंने अनसुना कर दिया। 

मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। पिता का कई दिनों बाद शहनाई का अभ्यास। बीच-बीच में उठना और मुझे देख जाना। चेहरे पर सहजपन। उन्होंने आंगन में आकर आज दो-तीन बार चिड़ियों को चावल भी डाले थे और उनके लिए पेड़ में टांगे पानी के पौ में पानी भी भर दिया था। कई दिनों बाद आंगन में चिड़ियों की चहचाहट भर आई थी। इसका मतलब मेरी बात का..........? इतना सोच कर मैं मन ही मन खुश हो गया। पर पिता के सामने जाने का साहस नहीं हुआ। न ही उन्होंने मुझ से कोई बात की। लेकिन मैं जैसे आज सातवें आसमान पर उड़ रहा था। 

अन्धेरा हुआ तो अपना ट्रंक खोला। पिछले सप्ताह पिता ने मुझे टेरीकोट का साढ़े पांच मीटर कपड़ा सादे सूट के लिए लाया था। उसे चुपके से निकाला और अपने सिरहाने के नीचे छुपा दिया। सुबह के इंतजार में सारी रात नींद नहीं आई। सुबह होते ही उठा। हाथ-मुंह धोए। सूट के कपड़े को काछ के बीच छुपाए बिल्ली के पांव आंगन से निकल कर देवता के मन्दिर की तरफ निकल पड़ा गया। हांपता हुआ पहुंचा। शुक्र है कोई रास्ते में नहीं मिला। इधर-उधर देखा। वहां कोई नहीं था। जूते बाहर खोले। गेट के भीतर गया। द्वारपाल देवता की मूर्ति के सामने आकर मथा टेका। सूट के कोरे कपड़े की तहें खोली और उसे मूर्ति के सिर से लेकर पांव तक लपेट दिया। 

बाहर इतमिनान से निकला। जूते पहने। पहले मन किया कि छोटे रास्ते से निकल जाऊं पर मन हुआ कि ब्राह्मणों की बेड़ से ही चला जाए।

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If any question why we died, tell them, because our fathers lied.
Rudyard Kipling
(1865-1936)
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