पहाड़ में देवताओं और उनसे जुड़ी परम्पराओं का लम्बे समय से लोक जीवन और समाज में दखल रहा है। यह ऐसा दखल है जिसके अन्तर्गत देव-निर्णय को किसी भी अदालत में चुनौती नहीं दी जाती उसे सर झुकाकर स्वीकार कर लिया जाता है। आज के समय में हालांकि बहुत सी रूढ़ियां टूटी है फिर भी इसके अवशेष आज के समाज में दिखाई देते हैं। अनेक बार देवताओं के निर्णय लोगों के लिए वरदान बनते देखे गए हैं। बहुमुखी आर्थिक विकास के नाम पर पहाड़ों की खरीद-फरोख्त बे हिसाब की जा रही है। उसमें सभी के हिस्से किसी न किसी रूप में बराबर महफूज रहते हैं। ये ऐसे तत्व हैं जिनकी सत्ता के गलियारों और प्रशासन के अहातों में गहरी पैठ हैं। जब लोगों की कोई नहीं सुनता तो वे बेचारे अपने देवता की शरण में जाते हैं। यह कहानी इन्हीं तथ्यों का तानाबाना है ।
जहाँ सीमेंट फैक्ट्री प्रस्तावित थी वह एक विशाल चरांद था जहां दूर-दूर से गांव के पशु सुबह चरने आते और शाम ढलते अपने-अपने घरों को लौट जाया करते । उनके साथ जो ग्वाले और ग्वालिनें होतीं वे हमेशा खाली हाथ रहतीं। क्योंकि उस विशाल चरांद को देवता की जगह माना जाताउस चरांद के आर-पार कभी घना और डरावना जंगल हुआ करता था जिसे लोगों ने अपनी जरूरतों के लिए उजाड़ बना दिया था। जंगल के सिरे पर विशाल शिलाओं वाले पहाड थे जो आसमान से बातें करते थे। उनकी चोटियां ऐसी दिखती मानों उन पर आसमान टिका हो। बारिश के मौसम में बादलों की अटखेलियां देखते ही बनती थीं। कभी वे उन पहाड़ों को अपने सफेद मायाजाल में अदृश्य कर देते तो कभी जब बारिश थमती तो उनकी गोद में ऐसे सोए रहते मानों मीलों पैदल चलने के बाद अपनी थकान उतार रहे हों। हवाओं के तेज बहाव में जब वे आसमान की ओर उड़ते तो धारों की पीठ पर दूर-दूर उगे चीड़ और बान के पेड़ ऐसे लगते जैसे कोई राहगीर छाते लिए पगडंडियों से अपने घरों को लौट रहे हो।चरांद के बीचोबीच एक बड़ी शिला थी जिसकी लम्बाई सात हाथ और चौड़ाई पांच हाथ थी। लोग बताते थे कि इस पर कभी महा पंचायत के अवसर पर देवता का मुख्य गूर बैठा करता था। पिछले सौ बरसों से हालांकि वहां कोई देव पंचायत नहीं हुई थी परन्तु मुख्य देवता का एक पुजारी उस शिला की पूजा महीने की हर सान्त और विशेष त्यौहारों के दिन जरूर किया करता था। जीवन के पिता गणेसू बताया करते कि उस शिला को हिमालय से असंख्य देवगणों ने उठाकर यहां लाया था। उन्होंने यह बात अपनी दादी से सुनी थी और उनकी दादी ने भी इसी तरह किसी बुजुर्ग से सुनी होगी। लोग यह भी मानते थे कि महाभारत काल में पांडवों ने वहां अज्ञातवास के दौरान अपनी विराट नगरी बसाई थी। महाभारत युध्द के बाद वह एक जलजले में बह गई जिसके खंडहर आज भी देखे जा सकते थे। देखने में सचमुच लगता कि वहां कालांतर में कोई नगर रहा होगा। बीच-बीच में जीर्ध-शीर्ण अवस्था में कई पत्थर के गुंबद मंदिर और चौबारे देखे जा सकते थे। दरिया के किनारे-किनारे कई जगहों पर पत्थर की मूर्तियां खंडित अवस्था में बिखरी पड़ी थीं। दरिया में पानी दो मौसमों में भरता था। गर्मियों में पहाड़ों पर सोए हिमखंड पिघलते और बरसात में कई सहायक नदी-नाले इसके पानी को बढ़ा देते जिससे पानी काफी ऊपर तक चढ़ आता और वे मंदिर और खंडहर डूब जाते थे। देव शिला के साथ एक विशाल पीपल का पेड़ था। इसका तना इक्कीस देवदार के पेड़ों के बाराबर माना जाता था। उसकी टहनियों ने लगभग आधे बीघे तक का चरांद ढक रखा था। इस पीपल को देख कर सचमुच आश्चर्य होता था। देव शिला बिल्कुल उसके नीचे थी और पीपल की टहनियों की घनाई ऐसे लगती थी मानों शिला को ढकने के लिए ही बनी हो। इस पेड़ पर जंगली जानवरों और पक्षियों का एक पूरा संसार बसता था। कई प्रजातियों के पक्षियों के घोंसले उसके झुरमुटों में थे। थके-हारे कौवे भी उसकी टहनियों पर बैठे दिनभर की थकान उतारते थे। इलाके में यही ऐसा पेड़ था जिस पर कभी-कभार बीसियों गिध्द बैठे देखे जा सकते थे। तकरीबन सात-आठ जगहों पर रिंगल यानि बर्रों ने अपने रहने के लिए फुटबालनुमा घर बनाए हुए थे। पीपल की लम्बी और पत्तरीली शाखाओं में जंगली मधुमक्खियां भी बसंत आने पर शहद का करोबार किया करती थीं। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गांव के बच्चों ने इस चरांद में कई जगहों पर क्रिकेट खेलने के लिए आंगन जितने छोटे-छाटे स्थान बना रखे थे। वे जब छुट्टी होने पर अपने-अपने घरों को यहां से गुजरते तो एक-दो घण्टे जरूर खेल लिया करते। वे अपने बल्ले और बैट यहीं कहीं झाड़ियों में छिपाए रखते थे। शाम ढलते जब पशु और भेढ़-बकरियां घरों को लौटते तो वे भी उनके झुण्डों के साथ चल पड़ते है । मौसम के हिसाब से उस चरांद में तरह-तरह के जंगली फल लगते थे। बैर पकने के मौसम में बच्चे जब खेलते-खेलते थक जाते तो वे किसी न किसी पेड़ पर धावा बोल देते। एक बच्चा पेड़ पर चढ़ कर उसे खूब हिलाता जिससे पक्के बैर जमीन पर झड़ जाते और बचे बंदरों की तरह उन पर टूट पड़ते। ऊपर चढ़ा बच्चा अपने को कंटीली टहनियों से बचाता हुआ बैरों को तोड़-तोड़ कर अपनी जेबों में भरता रहता क्योंकि वह जानता था कि जितने में वह नीचे उतरेगा उसके साथी एक भी बैर नहीं रहने देंगे। कशमलों और करूंदुओं के सीजन में बच्चे इन फलों के छोटे-छोटे झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच या आसपास बैठ कर उनके पके हुए दानों को चुगते और मुट्ठियों में सांज कर खाते रहते। इनके रंगों से उनके मुंह गहरे लाल-काले हो जाते जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाया करता।
बरसातों के मौसम में जब शिम्बल के पेड़ों पर रींगल यानि बर्रे अपने घर बनाते तो बच्चों की शरारतें आसमान पर होती। वे फुटबॉलनुमा उनके घरों पर पत्थर फैंका करते जिससे बर्रे गुस्सा जाते और अपने घरों से बाहर निकल कर आक्रमण के लिए निकल पड़ते। बच्चे तुरन्त उनके हमले से बचने के लिए फौजियों की माफिक जमीन पर औंधे मुंह लेट जाते और जब तक बर्रे शांत हो कर अपने घरों में नहीं घुस जाते वे सांस रोके वहीं पड़े रहते।पुरानी चौकियां और स्लेट की छतों वाले घर सुन्दर लगते थे:
यह क्षेत्र दो भागों में बंटा था। लगभग बीस किलोमीटर लम्बी धार उसके भागों को निर्धारित करती थी। धार का मध्य भाग समुद्रतल से तकरीबन नौ हजार फुट की ऊंचाई वाला था जिसकी चोटि पर उस क्षेत्र के मुख्य देवता का प्राचीन मंदिर स्थित था। पहाड़ी की चोटि पर स्थित क्षेत्र के मुख्य देवता के इस प्राचीन मंदिर से चरांद बिल्कुल नीचे दिखता था। ऐसा लगता मानो देवता चरांद की रखवाली कर रहा हो। मंदिर शिखर शैली में बना था जिसकी सात घुमावदार स्लेट से छवाई छतरीनुमा छत आसमान की ओर नुकीली हो जाती थी। चोटि पर पीतल का तकरीबन पांच फुट लम्बा कलश था जिस पर लोहे की मोटी चादर का बना मोर हवा के साथ घूमता रहता था। कौवों के मनोरंजन का वह अनूठा साधन था। वे बारी-बारी उस पर बैठते और घूमते रहते। गर्भगृह के भीतर प्राचीन पत्थर की मूर्ति स्थापित थी। उसका दरवाजा इतना छोटा था कि पुजारी जब भीतर पूजा के लिए जाता तो उसे हाथों के बल भीतर घुसना पड़ता । वह महज एक धोती पहनकर ही अंदर जाता। उसके इलावा कोई भी भीतर नहीं जा सकता था। दरवाजे पर सांपों और पक्षियों की आकृतियां उकेरी गई थीं जिन्हें लाल और हरे रंग से सजाया गया था। उसके बीच-बीच में पुराने जमाने के पीतल के सिक्के मेखों से चिपकाए देखे जा सकते थे। मंदिर का बरामदा चार विशाल देवदार के स्लिपरों पर टिका था जिन पर ऊपर की ओर लगे नौ खम्बे गर्भगृह के आगे की छत निर्मित करते थे। इन खम्बों की आकृतियां मनुष्य जैसी थीं जिन्हें पांडव और कौरवों की छवियां बताया जाता था। मध्य भाग में हवन कुण्ड था जिसमें हमेशा लकड़ियाँ जलती रहती थीं। देवता के कारदारों का मानना था कि यह आग बरसों से इसी तरह जलती रही है और जब कभी इस पर लकड़ियां भी नहीं होती बावजूद उसके राख के भीतर के अंगारे जीवित रहते हैं। इसके प्रांगण में खड़े होकर दोनों तरफ के इलाकों को निहारा जा सकता था। पश्चिम वाला क्षेत्र पूर्वी ढलानी क्षेत्र से काफी ज्यादा उपजाऊ और सम्पन्न था। हल्की ढलानदार पहाड़ियों की तलहट्टियों में बसे गांव,सीढ़ीनुमा खेत और क्यार जहां इसके सौन्दर्य को चार चांद लगाते वहीं दूर-दूर तक फैले सेब, प्लम, नाशपाती,खुमानी और कीवि के बागीचे वहां के निवासियों की सम्पन्नता को बयान करते दिखते थे। एक दूसरे के गले मिलती टेढ़ी-तिरछी धारें देवदार और चील के जंगलों से सराबोर जन्नत जैसी दिखती। उनके ओर-छोर और बीचो-बीच छोटे-छोटे पहाड़ी नाले यूं बहते-भागते दिखते मानों किसी ने सांपो की बांबियों में धावा बोल दिया हो।
जहाँ सीमेंट फैक्ट्री प्रस्तावित थी वह एक विशाल चरांद था जहां दूर-दूर से गांव के पशु सुबह चरने आते और शाम ढलते अपने-अपने घरों को लौट जाया करते । उनके साथ जो ग्वाले और ग्वालिनें होतीं वे हमेशा खाली हाथ रहतीं। क्योंकि उस विशाल चरांद को देवता की जगह माना जाताउस चरांद के आर-पार कभी घना और डरावना जंगल हुआ करता था जिसे लोगों ने अपनी जरूरतों के लिए उजाड़ बना दिया था। जंगल के सिरे पर विशाल शिलाओं वाले पहाड थे जो आसमान से बातें करते थे। उनकी चोटियां ऐसी दिखती मानों उन पर आसमान टिका हो। बारिश के मौसम में बादलों की अटखेलियां देखते ही बनती थीं। कभी वे उन पहाड़ों को अपने सफेद मायाजाल में अदृश्य कर देते तो कभी जब बारिश थमती तो उनकी गोद में ऐसे सोए रहते मानों मीलों पैदल चलने के बाद अपनी थकान उतार रहे हों। हवाओं के तेज बहाव में जब वे आसमान की ओर उड़ते तो धारों की पीठ पर दूर-दूर उगे चीड़ और बान के पेड़ ऐसे लगते जैसे कोई राहगीर छाते लिए पगडंडियों से अपने घरों को लौट रहे हो।चरांद के बीचोबीच एक बड़ी शिला थी जिसकी लम्बाई सात हाथ और चौड़ाई पांच हाथ थी। लोग बताते थे कि इस पर कभी महा पंचायत के अवसर पर देवता का मुख्य गूर बैठा करता था। पिछले सौ बरसों से हालांकि वहां कोई देव पंचायत नहीं हुई थी परन्तु मुख्य देवता का एक पुजारी उस शिला की पूजा महीने की हर सान्त और विशेष त्यौहारों के दिन जरूर किया करता था। जीवन के पिता गणेसू बताया करते कि उस शिला को हिमालय से असंख्य देवगणों ने उठाकर यहां लाया था। उन्होंने यह बात अपनी दादी से सुनी थी और उनकी दादी ने भी इसी तरह किसी बुजुर्ग से सुनी होगी। लोग यह भी मानते थे कि महाभारत काल में पांडवों ने वहां अज्ञातवास के दौरान अपनी विराट नगरी बसाई थी। महाभारत युध्द के बाद वह एक जलजले में बह गई जिसके खंडहर आज भी देखे जा सकते थे। देखने में सचमुच लगता कि वहां कालांतर में कोई नगर रहा होगा। बीच-बीच में जीर्ध-शीर्ण अवस्था में कई पत्थर के गुंबद मंदिर और चौबारे देखे जा सकते थे। दरिया के किनारे-किनारे कई जगहों पर पत्थर की मूर्तियां खंडित अवस्था में बिखरी पड़ी थीं। दरिया में पानी दो मौसमों में भरता था। गर्मियों में पहाड़ों पर सोए हिमखंड पिघलते और बरसात में कई सहायक नदी-नाले इसके पानी को बढ़ा देते जिससे पानी काफी ऊपर तक चढ़ आता और वे मंदिर और खंडहर डूब जाते थे। देव शिला के साथ एक विशाल पीपल का पेड़ था। इसका तना इक्कीस देवदार के पेड़ों के बाराबर माना जाता था। उसकी टहनियों ने लगभग आधे बीघे तक का चरांद ढक रखा था। इस पीपल को देख कर सचमुच आश्चर्य होता था। देव शिला बिल्कुल उसके नीचे थी और पीपल की टहनियों की घनाई ऐसे लगती थी मानों शिला को ढकने के लिए ही बनी हो। इस पेड़ पर जंगली जानवरों और पक्षियों का एक पूरा संसार बसता था। कई प्रजातियों के पक्षियों के घोंसले उसके झुरमुटों में थे। थके-हारे कौवे भी उसकी टहनियों पर बैठे दिनभर की थकान उतारते थे। इलाके में यही ऐसा पेड़ था जिस पर कभी-कभार बीसियों गिध्द बैठे देखे जा सकते थे। तकरीबन सात-आठ जगहों पर रिंगल यानि बर्रों ने अपने रहने के लिए फुटबालनुमा घर बनाए हुए थे। पीपल की लम्बी और पत्तरीली शाखाओं में जंगली मधुमक्खियां भी बसंत आने पर शहद का करोबार किया करती थीं। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले गांव के बच्चों ने इस चरांद में कई जगहों पर क्रिकेट खेलने के लिए आंगन जितने छोटे-छाटे स्थान बना रखे थे। वे जब छुट्टी होने पर अपने-अपने घरों को यहां से गुजरते तो एक-दो घण्टे जरूर खेल लिया करते। वे अपने बल्ले और बैट यहीं कहीं झाड़ियों में छिपाए रखते थे। शाम ढलते जब पशु और भेढ़-बकरियां घरों को लौटते तो वे भी उनके झुण्डों के साथ चल पड़ते है । मौसम के हिसाब से उस चरांद में तरह-तरह के जंगली फल लगते थे। बैर पकने के मौसम में बच्चे जब खेलते-खेलते थक जाते तो वे किसी न किसी पेड़ पर धावा बोल देते। एक बच्चा पेड़ पर चढ़ कर उसे खूब हिलाता जिससे पक्के बैर जमीन पर झड़ जाते और बचे बंदरों की तरह उन पर टूट पड़ते। ऊपर चढ़ा बच्चा अपने को कंटीली टहनियों से बचाता हुआ बैरों को तोड़-तोड़ कर अपनी जेबों में भरता रहता क्योंकि वह जानता था कि जितने में वह नीचे उतरेगा उसके साथी एक भी बैर नहीं रहने देंगे। कशमलों और करूंदुओं के सीजन में बच्चे इन फलों के छोटे-छोटे झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच या आसपास बैठ कर उनके पके हुए दानों को चुगते और मुट्ठियों में सांज कर खाते रहते। इनके रंगों से उनके मुंह गहरे लाल-काले हो जाते जिससे उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाया करता।
बरसातों के मौसम में जब शिम्बल के पेड़ों पर रींगल यानि बर्रे अपने घर बनाते तो बच्चों की शरारतें आसमान पर होती। वे फुटबॉलनुमा उनके घरों पर पत्थर फैंका करते जिससे बर्रे गुस्सा जाते और अपने घरों से बाहर निकल कर आक्रमण के लिए निकल पड़ते। बच्चे तुरन्त उनके हमले से बचने के लिए फौजियों की माफिक जमीन पर औंधे मुंह लेट जाते और जब तक बर्रे शांत हो कर अपने घरों में नहीं घुस जाते वे सांस रोके वहीं पड़े रहते।पुरानी चौकियां और स्लेट की छतों वाले घर सुन्दर लगते थे:
यह क्षेत्र दो भागों में बंटा था। लगभग बीस किलोमीटर लम्बी धार उसके भागों को निर्धारित करती थी। धार का मध्य भाग समुद्रतल से तकरीबन नौ हजार फुट की ऊंचाई वाला था जिसकी चोटि पर उस क्षेत्र के मुख्य देवता का प्राचीन मंदिर स्थित था। पहाड़ी की चोटि पर स्थित क्षेत्र के मुख्य देवता के इस प्राचीन मंदिर से चरांद बिल्कुल नीचे दिखता था। ऐसा लगता मानो देवता चरांद की रखवाली कर रहा हो। मंदिर शिखर शैली में बना था जिसकी सात घुमावदार स्लेट से छवाई छतरीनुमा छत आसमान की ओर नुकीली हो जाती थी। चोटि पर पीतल का तकरीबन पांच फुट लम्बा कलश था जिस पर लोहे की मोटी चादर का बना मोर हवा के साथ घूमता रहता था। कौवों के मनोरंजन का वह अनूठा साधन था। वे बारी-बारी उस पर बैठते और घूमते रहते। गर्भगृह के भीतर प्राचीन पत्थर की मूर्ति स्थापित थी। उसका दरवाजा इतना छोटा था कि पुजारी जब भीतर पूजा के लिए जाता तो उसे हाथों के बल भीतर घुसना पड़ता । वह महज एक धोती पहनकर ही अंदर जाता। उसके इलावा कोई भी भीतर नहीं जा सकता था। दरवाजे पर सांपों और पक्षियों की आकृतियां उकेरी गई थीं जिन्हें लाल और हरे रंग से सजाया गया था। उसके बीच-बीच में पुराने जमाने के पीतल के सिक्के मेखों से चिपकाए देखे जा सकते थे। मंदिर का बरामदा चार विशाल देवदार के स्लिपरों पर टिका था जिन पर ऊपर की ओर लगे नौ खम्बे गर्भगृह के आगे की छत निर्मित करते थे। इन खम्बों की आकृतियां मनुष्य जैसी थीं जिन्हें पांडव और कौरवों की छवियां बताया जाता था। मध्य भाग में हवन कुण्ड था जिसमें हमेशा लकड़ियाँ जलती रहती थीं। देवता के कारदारों का मानना था कि यह आग बरसों से इसी तरह जलती रही है और जब कभी इस पर लकड़ियां भी नहीं होती बावजूद उसके राख के भीतर के अंगारे जीवित रहते हैं। इसके प्रांगण में खड़े होकर दोनों तरफ के इलाकों को निहारा जा सकता था। पश्चिम वाला क्षेत्र पूर्वी ढलानी क्षेत्र से काफी ज्यादा उपजाऊ और सम्पन्न था। हल्की ढलानदार पहाड़ियों की तलहट्टियों में बसे गांव,सीढ़ीनुमा खेत और क्यार जहां इसके सौन्दर्य को चार चांद लगाते वहीं दूर-दूर तक फैले सेब, प्लम, नाशपाती,खुमानी और कीवि के बागीचे वहां के निवासियों की सम्पन्नता को बयान करते दिखते थे। एक दूसरे के गले मिलती टेढ़ी-तिरछी धारें देवदार और चील के जंगलों से सराबोर जन्नत जैसी दिखती। उनके ओर-छोर और बीचो-बीच छोटे-छोटे पहाड़ी नाले यूं बहते-भागते दिखते मानों किसी ने सांपो की बांबियों में धावा बोल दिया हो।
इस क्षेत्र के मध्य से ब्रिटिश राज के दौरान बहुत पहले नदी के छोर से सड़क मार्ग निकल गया था और इसी से कई सम्पर्क मार्ग अब दूर-दराज बसे गांव तक पहुंचने लगे थे। गाँव में अभी भी पुराने घर तथा हवेलियां देखी जा सकती थीं। तकरीबन प्रत्येक बड़े गांव में एक बड़ी चौकी मौजूद थी जिससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि वह किसी बड़े जमींदार या पुरोहित की हवेली होगी। वह क्षेत्र स्लेटों यानि पतले चकोर पत्थरों की खानों के लिए भी मशहूर था। इसलिए हर घर की छतें स्लेटों की छवाई से बहुत सुंदर लगतीं। हालांकि अब कच्चचे घरों को सीमेंट से पक्का करने का प्रचलन शुरू हो गया था लेकिन छतों को पूर्ववत ही रहने दिया जाता था। जो नए घर बनते उन पर भी लोग स्लेटों की छवाई किया करते जिससे उनका ठेठ देहातीपन बना रहता था।
कंदराओं में देवता के लोग रहा करते थे:
पूर्वी क्षेत्र अधिक उपजाऊ नहीं था। क्षेत्रफल के लिहाज से ज्यादा और आबादी से बहुत कम इस इलाके का जन-जीवन अत्यन्त कठिन इसलिए था कि इसमें पथरीली धारें और भयंकर पहाड थे जो गांवों के बीचो-बीच कई भागों में नीचे बहती नदी में मिलते थे। धारें ज्यादातर काले और भूरे पत्थरों से सनी थी जिनके बीच हरे जंगलों की बनिस्पत घास ज्यादा उगता था। गांव भी छोटे-छोटे थे जो कई मीलों की दूरी पर बसे थे।
पश्चिमी ढलान वाले इलाके की तरह यहां के लोगों के पास आजीविका के लिए जमीन का कोई विशेष सहारा नहीं था। फसलें कुदरत पर निर्भर थीं। सिंचाई के कोई साधन नहीं थे। आज भी लोग मीलों चल कर बांवड़ियों से पीने का पानी ढोते थे। कई बार जब बारिश कम होती तो सूखे जैसी स्थिति पैदा हो जाया करती। पानी के स्त्रोत सूखने लगते। लोग फिर अपने-अपने देवताओं की शरणों में जाते और उनसे वर्षा होने की गुहार लगाते। इन्द्र देवता को मनाने के लिए देव पंचायतें होतीं और देवता के गूर अपने-अपने तरीकों से भविष्यवाणियां करते रहते।
लोगों के पास आजीविका के लिए कोई स्थायी साधन नहीं थे। वे या तो दूर-पार सडकों और जंगलात पर ध्याड़ी लगाकर रोजी-रोटी कमाते या दूर-दराज के इलाकों में मजदूरी करने जाया करते। कईयों की रोटी खच्चरों से चलती। बहुत से घर ऐसे थे जो लोहे और लकडी क़ी दस्तकारी में पारंगत थे। वे तरह-तरह की चीजें बनाते और उन्हें पीठ पर लाद कर किसी न किसी नजदीक के पहाड़ी बाजार में जाकर बेचते रहते। जो गांव पंडितों के थे उनका कामकाज पंडिताई से चलता। वे दूर-दूर तक अपने-अपने जजमानों के घर कथा-पाठ किया करते और विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करवाते।
एक गांव ऐसा था जो मुख्य देवता के गूरों के गांव के नाम से जाना जाता था। वह पहाड़ की चोटि पर स्थित मंदिर के बिल्कुल नीचे ढलान में बसा था। दूर-पार से कतई अनुमान नहीं लगाया जा सकता था कि वहां भी लोग बसते हों। लेकिन मंदिर जाते वक्त जब उस गांव के ऊपर लोग पहुंचते तो देख कर हैरान हो जाते कि इन कंदराओं में भी हरा-भरा जीवन मौजूद है। वहां के लोगों का मानना था कि उनके पूर्वज कभी देवता के साथ यहां बसने आए थे। इसलिए उस गांव को देव कार्यों के लिए ही निर्धारित किया गया था। उनमें देवता के गूर, पुजारी
और कारिंदे शामिल थे। हालांकि उनकी कमाई ज्यादा नहीं थी परन्तु मान-प्रतिष्ठा में वे सबसे अब्बल माने जाते थे।
यह तहसील एक चुनाव क्षेत्र भी था। सत्तारूढ़ पार्टी का विधायक इसी क्षेत्र से आता था। आरक्षित चुनाव क्षेत्र होने के नाते यह लाभ जरूर यहां के लोगों को मिला था। लेकिन लोगों ने यह पाया था कि विधायक महोदय अपने इलाके की तरफ कम और दूसरे सम्पन्न इलाके का ज्यादा ध्यान रखते थे।
गर्मपानी के चश्मों और तुलादान से पुण्य कमाते थे लोग :
इस क्षेत्र को जहां नदी पर बना बरसों पुराना विशाल पुल दूसरे जिले से जोड़ता था वहां छोटा सा पहाड़ी बाजार था। दूर-दराज के इलाकों से आती-जाती बसें यहीं रूकतीं। छोटे-बड़े वाहनों का भी यही पड़ाव था। बाजार में कुछेक खाने-पीने के ढाबे थे और इतनी ही राशन, सब्जी और मन्यारियों की दुकानें मौजूद थीं। एक-दो ऐसे थे जिन पर गलत हिन्दी में विशुध्द शाकाहारी के बदरंग से बोर्ड लटके हुए तो थे लेकिन पीछे की तरफ बने कमरों में बसों और दूसरे वाहनों के ड्राइवरों को चोरी-छिपे देशी शराब जरूर मिल जाया करती थी। जो शराब नहीं पीते उन्हें या तो मलाई वाली चाय मिल जाती या मुफ्त खाना। इसके इलावा ढाबों के मालिक भांग-सुल्फे की डलियां भी उन्हें उपलब्ध करवा देते थे। उस बाजार में देर रात तक चहल-पहल रहती और दूकानदारों की अच्छी-खासी आमदनी भी होती।
इस जगह की खास बात यह थी कि नदी के तकरीबन चालीस-पचास फुट के छोर पर जगह-जगह गर्म पानी के प्राकृतिक चश्में मौजूद थे। लोग इसी कारण इसे सदियों से तीर्थ मानते आए थे जहां मकर सक्रांति,लोहड़ी और बैशाखी को बड़े मेले लगते थे। लोगों का मानना था कि इनमें नहाने से कई तरह के चर्म रोग मिट जाते हैं। इसके अतिरिक्त हर महीने पूर्णमासी तथा सक्रान्ति को भी लोग दूर-दूर से न केवल इन चश्मों में नहाने आते बल्कि किनारों पर पंडाल लगाए स्थानीय पंडों से तुलादान भी करवाया करते थे। इन चश्मों का पानी खारा था। लोगों के लिए गर्मपानी का निकलना भगवान का साक्षात चमत्कार था।
इन्हीं पंडालों में से एक पंडाल जीवन के पिता गणेसू पंडे का था। उनकी उम्र अब साठ पार हो चली थी लेकिन वे अभी भी पचास के आसपास दिखते थे। वहां जितने भी तुलादान करने वाले पंडे थे गणेसू पंडे उन सभी में लोकप्रिय थे। ज्यादा लोग उन्हीं के पास आते। उन्होंने अब लोहे का एक छोटा फोल्डिंग घर जैसा पंडाल बना दिया था जिसके ऊपर अच्छी तरह प्लास्टिक का मोटा तिरपाल छवाया हुआ था। भीतर एक किनारे लगभग सात फीट मोटा डंडा रेत में गड़ा होता और उसके सिरे पर एक और डंडा रस्सी से बांध लिया जाता जिसकी बाहें दोनों तरफ होतीं। उन्हीं के छोरों पर दो बांस के बड़े और मजबूत टोकरे नीचे की तरफ लटके रहते। यह बड़ा तराजू बन जाता जिसके एक तरफ तुलादान करवाने वाला आदमी बैठता और दूसरी तरफ उसी के वजन का अनाज और दूसरी चीजें रखी जाती। प्रत्येक आदमी उसी अनाज के घटाव-बढ़ाव से तुलता जाता और अपनी-अपनी सामर्थ्य के मुताबिक उस अनाज की कीमत अदा करता रहता। दूसरे पंडालों में भी यही सबकुछ होता रहता था।
गणेसू के पंडाल में एक तरफ प्लास्टिक की रस्सी बंधी होती जिस पर सात-आठ काले सूट टंगे रहते जिनमें मर्दाना और जनाना दोनों होते। उनकी शक्ल काले से भी कहीं बदत्तर दिखती जिससे लगता कि जब से वे बनाए गए हैं गणेसू ने कभी उन्हें धोया ही नहीं होगा। जिस मर्द या स्त्री को तुलादान करवाना होता, वे पहले गर्मपानी के चश्मों में स्नान करते और फिर पंडाल में आकर एक बदरंग चादर की ओट में नंगे होकर काले कपड़ों को पहनते और उसी रंग की टोपी लगाते। इस समय वे सचमुच किसी खेत में जानवरों को डराने के लिए गाड़े गए बिजूके या भूत से कम नहीं लगते। गणेसू मन लगाकर मन्त्रोच्चारण करके तुलादान सम्पन्न करवाया करता। दूसरे साथी पंडों की तरह उसके चेहरे पर ग्राहक निपटाने की कोई जल्दी नहीं होती। चेहरे से लगता जैसे उसका मन भरा हुआ है और यहां बैठ कर वह पैसे नहीं बल्कि पुण्य कमाने आया है। उसका यही संतोष लोगों को उसके पास लेकर आता।
कई बार जीवन पंडे भी पिता की मदद के लिए वहीं बैठा रहता। इस बार उसने संस्कृत कालेज से शास्त्री की पढ़ाई पूरी कर ली थी और अब किसी विषय में पी.एच.डी कर रहा था। जब बाप-बेटा दोनों पंडाल में होते तो गणेसू जीवन से ही तुलादान की सारी यिाएं पूर्ण करवाता। वह जब लय के साथ संस्कृत में मन्त्रोच्चारण करता तो लोगों का जमघट आसपास जुट जाता और गणेसू का सीना गर्व से तनने लगता कि उसका बेटा बड़ा पंडित बन गया है। जीवन को हालांकि इसमें कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी परन्तु वह पिता का मन रखने और उनकी मदद के लिए ही यह सब किया करता।
जीवन पढ़ाई के साथ-साथ अपने क्षेत्र के विकास के लिए लड़ने और लोगों के छोटे-मोटे काम करवाने के लिए भी जाना जाता था। एक समय था जब सतलुज के किनारे इतनी गन्दगी होती कि दूर-दराज से तीर्थ का पुण्य कमाने आए लोग खिन्न हो जाते। जगह-जगह प्लास्टिक की बोतलें और दूसरा सामान फैंका रहता। लोग नहाने के बाद अपने-अपने अंत-वस्त्र तक गर्मपानी के चश्मों के आर-पार फैंक देते। लोग न जाने इनमें भी कौन सा पुण्य देखते।
लेकिन जीवन के प्रयासों से आज यह जगह साफ सुथरी थी। उसने यहां के युवाओं को साथ लेकर एक समिति का गठन किया था जो इस तीर्थ में अच्छी व्यवस्था और सफाई का विशेष ध्यान रखती थी। यही कारण था कि अब नहाने के लिए दो छोर निर्धारित किए गए थे। एक छोर में जहां महिलाएं नहाती थीं, पहले कोई पर्दा नहीं था। वे कमर में चादर या दुपट्टा लपेट कर खुलेआम नहाया करती थीं। इसका कुछ सिरफिरे लोग नाजायज फायदा उठाया करते। वे दूर-पार बैठ कर वीडियो कैमरे से उनकी नंगी तस्वीरें खींचते और मजे लेते रहते थे। जीवन ने ऐसे कई मनचलों को न केवल अपनी संस्था के युवाओं से पिटवाया था बल्कि पुलिस के हवाले करके कई रातें जेलों में भी कटवा दी थी। इस वजह से अब वहां एक डर था जो महिलाओं के लिए सुरक्षा बन गया था।
जीवन पंडे अपने इलाके में तो जन सेवा के लिए सुविख्यात था बल्कि अपने कालेज में वह जितने दिन रहा, हमेशा प्रधान का चुनाव जीतता रहा और अच्छे काम किए। देखने में
भी वह बहुत सुन्दर था। कद उसका छ: फुट एक इंच था और वजन में भी पैंसठ से ज्यादा था। उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान बनी रहती। वह सादे लिबास में रहा करता। जीन की पैंट के ऊपर खादी का छोटा कुर्ता पहनना उसे बेहद पसन्द था। उसकी पीठ पर हमेशा एक पिट्ठू झोला होता जिसमें वह दो-तीन पुस्तकें, कोरे कागज और कुछ दूसरा सामान भरे रखता।
जब जीवन का पिता पंडाल में नहीं होता तो वह तुलादान की तकड़ी में एक तरफ बैठ कर अपने किसी युवा साथी से अनाज के वजन का हिसाब लगाकर देख लिया करता कि उसका अपना वजन कितना है। जब वह तकड़ी में बैठता तो कई हिलोरे भी ले लिया करता और अपने साथियों को बताता कि उसके सारे पाप धुल गए हैं। वह अपने उन साथियों का तुलादान बिना पैसे के करवा लेता जिन्हें घर से ऐसा करने के लिए कहा गया होता। लेकिन वे उसे कुछ न कुछ पैसे जरूर दे दिया करते जिन्हें वह अपने पिता के संदूकनुमा तिजोरी में डाल देता था।
जीवन की सोच पिता से अलग थी। इसलिए वह कई बार पिता को कोई दूसरा धंधा करने की सलाह भी दे दिया करता। लेकिन उसके पिता उसे प्यार से समझाते कि यह उनका पुश्तैनी कारोबार है जो भगवान ने उन्हें सौंपा है। उनके पूर्वज इसी काम के लिए धरती पर आए थे। हालांकि जीवन को इसमें कोई तर्क या सगाई नहीं दिखती पर वह इतना अवश्य सोचता कि इसी कामकाज से पिता ने उसकी पढ़ाई करवाई है। दो बहनों की धूमधाम से शादी हुई है और गांव में पक्का मकान भी बन गया है। उसे एक बात का अवश्य संतोष था कि उसके पिता औरों की तरह लूट-घसीट में विश्वास नहीं करते थे। वे पैसे भी हमेशा कम लेते और काम भी तसगी से करवाते जिससे उनके पास आए लोग बार-बार न केवल स्वयं आते बल्कि दूसरों को भी उन्हीं के पास भेजते।
जब पंडाल नदी के छोर पर नहीं लगता था तो वह अपने आंगन में बने शनि मंदिर में तुलादान करवाया करता। लोगों की सुविधा के लिए आंगन में ही एक खूबसूरत मंदिर बना लिया था जिसके बाहर एक कुटियानुमा पंडाल तुलादान के लिए स्थापित कर रखा था।
कम्पनी चोरी-छिपे लगा रही थी पहाड़ों में सेंध :
पूर्वी ढलानों की पहाड़ियां ऐसे बेशकीमती पत्थरों की खानें थीं जो सिमेंट के लिए प्रथम श्रेणी का माना जाता था। वैज्ञानिकों का मानना था कि देश में इस तरह का पत्थर किसी दूसरी जगह पर नहीं है। कुछ साल पहले जब एक कम्पनी ने कई महीनों तक जमीन के भीतर ड्रिलिंग करके यहां की मिट्टी और पत्थरों की छानबीन के लिए कई जगहों पर तम्बू आवास स्थापित किए थे तो लोगों के लिए यह बिल्कुल नई बात थी। उस दौरान यह भनक किसी को भी नहीं लगी थी कि ये लोग सिमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए इन पहाड़ों के पत्थरों का निरीक्षण कर रहे हैं। केवल उस इलाके के विधायक को इस बात का पता था और उसीने गोपनीय तरीके से यहां पर सिमेंट कारखाना लगाने के लिए उस कम्पनी से सम्पर्क भी किया था। इसके साथ उसने मुख्यमंत्री और दूसरे सहयोगियों से इसके लिए सहमति भी हासिल कर ली थी। वह जानता था कि यदि यहां कारखाना लग गया तो उसके वारे न्यारे हो सकते हैं।
सरकार और प्रशासन की ओर से भी यह बात बिल्कुल गोपनीय रखी गई थी। उन्हें अंदेशा था कि लोगों को यदि इस बात की भनक लग दई तो मुश्किल खड़ी हो सकती है। इसका कारण यह भी था कि कई दूसरी जगहों पर जहां-जहां सरकार ने बाहर की कम्पनियों को जमीनें फैक्ट्री या निजी शिक्षा संस्थानों को स्थापित करने के लिए दी थी वहां लोग विरोध करने लगे थे। इससे न केवल पहाड़ के पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा था बल्कि लोगों की जमीनें चली गईं थीं और वे बेघर हो रहे थे। उनकी सुनवाई न स्थानीय प्रशासन कर रहा था और न ही उनके चुने हुए जन प्रतिनिधि।
कम्पनी के लोगों ने हालांकि बहुत कम समय में ही उस क्षेत्र में परीक्षण का काम पूरा कर लिया था परन्तु उसके बावजूद एक सरकारी जगह पर छोटा सा आफिस भी खोल दिया गया था। इसके लिए तर्क यह दिया जाता था कि वे किसानों के लाभ की दृष्टि से मिट्टी और पत्थरों का परीक्षण करेंगे ताकि वे उसके अनुसार अपनी जमीनें आबाद कर सकें और ऐसी फसलें तैयार हों जिनकी वजह से उन्हें आर्थिक फायदे भी होते रहे। दिखावे के लिए उन्होंने उस क्षेत्र से जाती सडक के किनारे गांव के साथ दो-तीन पानी के हैंड पम्प भी लगा लिए थे जिससे लोगों को यह लग रहा था कि ये जरूर सरकार के किसी विभाग के कर्मचारी हैं जो उन्हीं की सेवा के लिए वहां आए हैं ।
जीवन पंडे पहाडों को बचाना चाहता था :
लेकिन जब एक दिन कम्पनी के लोग कई बड़े ट्रक भारी-भरकम मशीनों को लेकर वहां पहुंचे तो लोगों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। प्रिंट और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को भी इस बात की भनक लग गई थी कि वहां एक ऐसा सिमेंट प्लांट स्थापित हो रहा है जैसा पहले देश के किसी भाग में नहीं हुआ है। उन्होंने इस बात की भी आशंका जताई थी कि इस के लिए पूर्वी ढलान के तकरीबन सभी गांव इस फैक्ट्री की जद में आ जाएंगे जिससे हजारों लोग बेघर होगे।
इसी वजह से सबसे पहला विरोध जीवन पंडे की संस्था के चंद युवाओं ने उस छोटे से पहाडी बाजार में जुलूस निकाल कर किया था। तकरीबन आधे दिनों तक बसों और दूसरे वाहनों की आवाजाही बंद रही थी। स्थानीय पुलिस चौकी में इतने पुलिस कर्मी नहीं थे कि वे विरोध करने वालों को समझा-बुझा सके। इसलिए तहसील मुख्यालय से तहसीलदार को वहां पहुंचना पडा था। उसने मुश्किल से जीवन और उसके साथियों द्वारा किए जा रहे इस विरोध प्रदर्शन को शांत करवाया था।
अब तक वहां सिर्फ मशीने ही पहुंची थी, किसी तरह का काम अभी तक शुरू नहीं हुआ था। लेकिन चंद युवाओं के विरोध से सरकार या कम्पनी को कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। क्योंकि सरकार ने पहले ही उस क्षेत्र के सांसद, विधायक और दूसरे जन प्रतिनिधियों को अपने विश्वास में ले लिया था। प्रशासन तो सरकार का था इसलिए उन्हें जिस तरह के आदेश आते वे वही पालन करते।
जीवन ने विधायक और पंचायतों के प्रधानों से मिलकर निवेदन किया था कि उनके इलाके में सिमेंट फैक्ट्री न लगाई जाए क्योंकि इससे पूरा क्षेत्र और गांव नष्ट हो जाएंगे। पर्यावरण को भारी नुकसान होगा। इस पर उनका तर्क था कि लोगों को न केवल लाखों रुपए मुआवजे के रूप में मिलेंगें बल्कि दूसरे स्थानों पर रहने की व्यवस्था भी की जाएगी। उनकी बातें सुनकर जीवन और उसके साथियों को भारी निराशा हुई थी। जीवन को यह भनक लग गई थी कि उस क्षेत्र का विधायक सिमेंट कारखाना लगाने के लिए जीतने के बाद से ही प्रयत्नशील था जिसमें उसके कई तरह के स्वार्थ निहित थे।
जीवन जानता था कि यह मामला केवल दो-चार लोगों के विरोध का नहीं है। इसलिए उसने अपने इलाके के कुछ और जन प्रतिनिधियों से सम्पर्क साधना शुरू किया। मुश्किल से जीवन ने उन्हें प्रदेश के मुख्यमन्त्री से मिलने के लिए राजी करवा लिया था। कई दिनों के प्रयास के बाद वे मुख्यमंत्री से मिलने में सफल हुए थे। मुख्यमंत्री से बात तो हुई पर उनका यही मानना था कि वह जगह सिमेंट कारखाने के लिए बहुत उपयुक्त है क्योंकि वहां चूना पत्थरों के अपार भण्डार हैं । इसके अतिरिक्त इस कारखाने से वहीं के लोगों को लाभ होगा। उन्हें रोजगार मिलेगा । जिनकी जमीनें जाएगी उन्हें अच्छे पैसे दिए जाएंगे। जब इन तर्कों को भी उन्होंने नकार दिया तो मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कह दिया कि कारखाने का प्रस्ताव कैबिनट में उनके इलाके के सांसद और विधायक की सहमति के बाद ही पारित हुआ है।
जीवन और उसकी संस्था के प्रतिनिधियों को घोर निराशा हाथ लगी थी। बावजूद इसके उन्होंने राजधानी में एक बड़ी प्रैस कान्फ्रैंस आयोजित की थी जिसमें पुरजोर तरीके से जीवन ने अपनी बात रखी थी। दूसरे दिन की अखबारों के पहले पृष्ठ इस विरोध से भरे थे लेकिन सरकार, कम्पनी और दूसरे स्वार्थी लोग जानते थे कि समाचारों की आखिर उम्र ही कितनी होती है। दूसरे प्रदेश के सरकारी महकमों ने यह आंकड़े भी एकत्रित कर लिए थे कि इस विरोध के पीछे कितनी जनता है।
विपत्ति के समय हुआ करती थी महा पंचायत :
मीडिया में जिस तरह की कवरेज मिली उससे सरकार को अच्छी खासी परेशानी का सामना जरूर करना पड़ा था। क्योंकि सिमेंट कारखाने के पीछे केन्द्र सरकार तक के कुछ नेता लोग खड़े थे जिनका प्रदेश पर सीधा दबदबा और दवाब था। जीवन यह समझता था कि इस विरोध के कोई मायने नहीं है जब तक कि उसके अपने इलाके की जनता सड़कों पर न आ जाए। यह काम उसे बेहद मुश्किल इसलिए लग रहा था क्योंकि गांव दूर-दूर बसे थे। लोग ज्यादा जागरूक भी नहीं थे। इतने सम्पन्न भी नहीं कि अपने दिन का रोजगार त्याग कर सड़कों पर नारे लगाने आए।
बावजूद इसके जीवन और उसके साथियों ने घर-घर जाने का अभियान छेड़ दिया। ऐसा करने में कई दिन लग गए थे। वे लोगों को समझाने में कुछ हद तक कामयाब हो हए थे। उन्होंने एक और विरोध प्रदर्शन करने का निश्चिय किया था जिसमें प्रदेश भर से कई संगठनों को आमन्त्रित किया हया था ताकि स्थानीय लोगों का विश्वास बढ़ पाए। विरोध प्रदर्शन के दिन हालांकि कई संगठनों ने भाग लिया था लेकिन जीवन को अपने ही क्षेत्र से पूरा समर्थन नही मिला था। यह उसके लिए शंका और चिंता की बात थी। वह इसका कारण जानता था। दो जून की रोटी घ्याड़ी लगा कर कमाने वाले भला इस मंहगाई में कैसे भूखे पेट विरोध कर पाते......?
उसने हिम्मत नहीं हारी। वह कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे लोग उसके साथ जुड़े और सिमेंट कारखाने का पुरजोर विरोध करे। अचानक उसे अपने इलाके के देवता का ख्याल आया। देवता हर घर और गांव का इष्टदेव था। यही नहीं दूर-दूर से लोग देवता के मंदिर में जहां अनेक मनौतियां पूर्ण होने पर आते वहीं उसे जातराओं के लिए भी अपने-अपने घर ले जाते। लोगों का अपने देवता पर अटूट विश्वास था। अपार श्रध्दा थी। किसी भी व्यक्ति, परिवार और गांव का कोई भी छोटे से छोटा काम देवता की बिना मर्जी के नहीं होता। यहां तक कि लोगों के निजी जीवन तक में देवता का दखल था जिसे वे खुशी-खुशी स्वीकार करते थे। यहां तक कि लोगों और गांवों के कई बड़े झगड़ों तक देवता अपने गूरों के माध्यम् से निपटा लिया करता था। जो लोग आदेश नहीं मानते या कोई ऐसा काम करते जो समाज या उस क्षेत्र के हित में न होता, उसके लिए भी कई बार देवता के दरबार से उन्हें दंडित किया जाता। देवता से बड़ी कोई अदालत उनके लिए नहीं थी।
जीवन ने सुन रखा था कि जब कभी उस क्षेत्र में अकाल पड़ता या महामारी आती तो लोग देवता के मूल स्थान उसी विशाल चरांद में इकट्ठे होकर महा पंचायत का आयोजन किया करते थे। विशाल पीपल के नीचे स्थापित शिला पर मुख्य देवता का गूर, देव छाया से महत्वपूर्ण निर्णय सुनाता जिसे आमजन देवता के आदेश समझ कर स्वीकार करते। उसने अब इसी महा मंत्र का सहारा लेने की ठान ली थी। हालांकि यह दुर्लभ और बड़ा काम था, पर उसे विश्वास था कि देव समिति और देवता का मुख्य गूर इसके लिए जरूर राजी हो जाएगें ।
जीवन का बचपन भी उस जगह से जुड़ा था। जब तक वह गांव के स्कूलों में पढ़ता रहा, इसी चरांद में खेलते और पशु चुभाते उसके वे दिन गुजरे थे। बच्चों के साथ किेट खेलना, मौसमी फलों को खाना, चोरी-छिपे बर्रे के छतों को छेड़ना वह कैसे भूल सकता था।
लोहे के डायनासोर चरांद की ओर बढ़ने लगे थे:
इस बीच कम्पनी का काम बढ़ने लगा था। काम शुरू करने से पूर्व जो थोड़ा-बहुत विरोध हुआ था उसने कम्पनी के अधिकारियों और सरकार को सतर्क जरूर कर दिया था। वे जानते थे कि अभी जो चिंगारी दिख रही है वह भयंकर आग में भी तब्दील हो सकती है। इसलिए वे कूटनीति से काम ले रहे थे। उन्होंने लोगों और जन प्रतिनिधियों के बीच हर तरह से अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी थी। वे इलाके के ऐसे लोगों का विश्वास जीतने में लग गए थे जिनके विरोध का उन्हें ज्यादा खतरा था। उनका हर संभव यह प्रयास था कि जीवन पंडे को उनका साथ न मिल पाए। इसीलिए उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देने के लिए प्रयास शुरू हो गए थे। पानी की तरह पैसा बहाया जाने लगा और लोगों की नजरों में ऐसे कामों को अंजाम दिया जाने लगा जो गांव के विकास से जुड़े थे। वे हर तरह से लोगों के हिमायती और पैरोकार बनना चाहते थे। कम्पनी ने इलाके के सांसद,विधायक और कुछ पंचायतों के प्रधानों को साथ लेकर यह काम किया था। जीवन पंडे जानता था कि कम्पनी इन्ही जन प्रतिनिधियों को बैसाखियां बनाएंगे और लोगों के हितों से खिलवाड़ करते रहेंगे।
ऐसा नहीं था कि जीवन से किसी ने सम्पर्क नहीं किया था। रोज कोई न कोई कम्पनी का अफसर,प्रशासनिक अधिकारी और दूसरे जन प्रतिनिधि जो कम्पनी की गिरफ्त में फंस चुके थे, उसके पास आते और कई तरह के लालच और प्रलोभर उसे देते। एक दो बार तो उसके पिता को धमकियां तक दी गई थीं कि वह अपने बेटे को समझा दे कि विकास के काम में रोड़े डालना बंद कर दें। पिता चिंतित तो थे लेकिन समझते थे कि जीवन इतनी आसानी से मानने वाला नहीं। दूसरे वह कोई गलत काम तो कर नहीं रहा है, लोगों और अपने इलाके की भलाई के लिए ही काम कर रहा है।
एक दिन लोगों ने देखा कि डायनासोर माफिक मशीनों की गर्दनें देवता के मुख्य स्थल और चरांद की ओर मुड़ने लगी थीं। कम्पनी ने जगह-जगह अपने लोग तैनात कर दिए थे जिससे गांव के लोगों के पशु वहां चरने न आ सके। बगों का खेलना तक बंद कर दिया गया था। इस चरांद के एक हिस्से में पहाड़ो से किन्नौरे और गद्दी लोग सर्दियों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ डेरा डालते थे। नदी के किनारे तो कई किन्नौरों ने पत्थर के छोटे-छोटे घर बना दिए थे जिसमें वे स्वयं रहते और चारों तरफ उनकी भेड़े और बकरियां। कुछ अपने घोड़े लेकर वहां पहुंच जाते। इस बार उनके आने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया था।
जीवन जानता था कि यह मामला चंद लोगों का नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र का है। पहाड़ों के समाप्त होने का है। बीसियों गांव के उजड़ने का है। पशुओं और भेड़-बकरियों के चरांद समाप्त होने का है। देवता के मूल स्थान और सदियों से चली आ रही देव-परम्पराओं के नष्ट होने का है।
उसे मालूम था कि जिन-जिन जगहों पर पहले इस तरह के कारखाने लगे हैं और प्राइवेट यूनिवर्सिटियां बनी है उनकी वजह से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है। उन्होंने जो स्थानीय लोगों को रोजगार देने के वादे किए थे वे कभी पूरे नहीं हुए थे। कम्पनी दिखावे के लिए केवल उन्हीं चंद सेवानिवृत अधिकारीगणों पर महरबान थीं जो सरकार में रहते हुए किसी न किसी रूप में उन्हें लाभ पहुंचाते रहे थे। या फिर इलाके के गिने-चुने प्रभावशाली लोग उसमें शामिल थे जिन्हें कम्पनी तरह-तरह के प्रलोभनों और लाभों के चव्यू में फंसा कर उनका समर्थन हासिल कर चुकी थी। इसीलिए उन लोगों की आड़ में नियमों की अनदेखी के मामले वहीं दफन हो जाया करते और सरकारी गलियारों में उनकी छवि अत्यन्त विकासात्मक और साफ-सुथरी बनी रहती। लोग जो विरोध कर रहे होते उनके खिलाफ उन्हीं के इलाके के इन्हीं प्रभावशाली लोगों को हथियार बना कर इस्तेमाल किया जाता था। ये लोग कम्पनियों और सरकार के बीच ऐसे पुल का काम किया करते जिन पर उनके अपने स्वार्थ और सम्पन्नता की गाड़ियाँ बिना धुंआ उगले चुपचाप दौड़ती रहती। वहां भीतर आने से पहले जाति पूछी जाती थी।
अपनी सोच को मूर्त रूप देने की चाह से एक दिन जीवन देवता के मुख्य गूर के घर अपनी संस्था के महज दो साथियों को लेकर चला गया जो काफी दूरी पर था। पहले वे देवता के मंदिर मथा टेकने गए थे। जीवन और उसके साथियों ने देवता को प्रणाम किया और ग्यारह रूपए भेंट के रूप में दरवाजे की ओट से भीतर खिसका दिए। शाम हो रही थी। वे शाम ढलते गूर के घर पहुंचे थे।
आंगन में प्रवेश करते ही उनका सामना एक भारी भरकम पहाड़ी कुत्ते से हुआ। वह जितनी तेजी से जीवन की तरफ भागा उतनी ही फूर्ति से एक सात-आठ साल के बच्चे ने दौड़ कर उसे गले में बंधे पट्टे से पकड़ लिया था। वह उसे घसीटता हुआ भीतर ले गया और एक कोने में उसे बांध दिया। बच्चा जीवन और उसके साथियों को दहलीज के भीतर खड़े होकर दरवाजे की ओट से देख रहा था। उसका चेहरा गोल-मटोल था और बाल बुरी तरह आपस में उलझे हुए थे जिनमें जगह जगह घास के तिनके फंसे थे। इससे लगता था जैसे बच्चा कई दिनों से नहाया नहीं है। उसने एक फटा हुआ लम्बा कोट पहन रखा था जो उसका हरगिज नहीं हो सकता था क्योंकि उसकी बाजुएं काफी लम्बी थी जिन्हें बच्चों ने अजीब तरीके से पीछे की तरफ मोड़ रखा था। पैंट जीन की थी जो काफी पुरानी और मैली थी। जीवन ने स्नेह से उसकी ओर देखा और पूछा था कि बड़े दादा यहीं है। जीवन जब कभी भी मुख्य गूर से मिलता तो उन्हें बड़े दादा से संबोधित करता था। बच्चा बिना कुछ कहे अदृश्य हो गया था। भीतर से कुछ बोलने की आवाजें आ रही थीं। तभी दोबारा वह बच्चा दहलीज पर आया और उसने जीवन से पूछा,
'कौण जात हो।'
जीवन और उसके साथी एक दूसरे का मुंह देखने लगे थे। पर वह जानते थे कि इस इलाके में पंडितों और कनैतों के घरों में जाने से पहले पखलों से उसकी जात जरूर पूछी जाती है ।
जीवन ने बच्चों से कहा कि वह गणेस दत्त पंडे का बेटा है और उसके साथी भी उसी के बिरादरी के है। यह सुन कर बच्चा भीतर चला गया था। उसी समय भीतर से आवाज आई थी।
'बेटा जूते उतार कर हाथ-मुंह धो लो और भीतर आ जाओ।'
पहले तो जीवन को कुछ समझ नहीं आया कि यह आवाज आखिर किस कमरे से आई है। उसी समय वह बच्चा हाथ में एक बड़ा सा लोहे का जग लेकर बाहर आ आया था। उसमें हल्का गर्म पानी था जिसे उसने जीवन को पकड़ा दिया। जीवन और उसके साथियों ने बूट उतारे और आंगन की मुंडेर पर ख़डे होकर हाथ मुंह धाने लग गए।
छोटा सा घर था। मिट्टी का बना हुआ। आंगन से लेकर भीतर तक गोबर की लिपाई की गई थी। बाहर की दीवारें सफेद मिट्टी से लिपि हुई थी और नीचे पूरी भीत में चारों तरफ दो फुट की काली पट्टी भरी थी। घर के बाईं तरफ सामने की ओर एक छोटे छेद में से बाहर-भीतर कई माहू यानि घरेलू मधुमक्खियां आ-जा रही थीं। दरवाजे के ठीक बीच एक छोटी सी लाल रंग की मौली लटक रही थी जिसमें दो-तीन नींबू, तीन चार लाल मिचर्ें और कई पत्तियां पिरोई हुई थीं। जीवन ने मन ही मन सोचा कि देवता के गूर के इस घर को किस नीच की बुरी नजर लग सकती है।
तभी एक अधेड़ महिला दो मेमनों को अगल-बगल उठा कर आंगन में प्रवेश हुई। जीवन ने उसे झुक कर प्रणाम किया तो उसने अपनी बोली में आशीर्वाद दिया। वह बिना कुछ कहे भीतर गई और एक कोने से पुराना सा किल्टा निकाला और वहीं उसके नीचे दोनों मेमने ढक दिए। भीतर तीन कमरे और एक गैलरी थी। पहाड़ी भाषा में कहें तो दो बावड़ियां और एक बीही। बाईं तरह की बावड़ी अर्थात कमरे के साथ रसोई थी जिसमें कोई जोर-जोर से चूल्हे में फूंक मार रहा था। धुआं इस कारण बीही में भर गया था जिससे कुछ दिख नहीं रहा था।
जीवन ने दहलीज के भीतर पहुंचते अंधेरे का जायजा लिया। सोचा कि यहां अभी भी बिजली नहीं पहुंची है जबकि पूरे इलाके में बिजली पहुंच चुकी है। दांए कमरे से फिर आवाज आई, 'बेटा दरवाजे के पास गौंच की डिबड़ी से दो चार छींटे अपने ऊपर लेकर भीतर आ जाओ।'
जीवन ने इधर-उधर देखा पर गोमूत्र वाली डिबड़ी कहीं अंधेरे में नजर नहीं आई। तभी वह बच्चा भीतर से आया और उसने एक कोने से डिबड़ी उठा कर उसमें रखी पत्तियों से गोमूत्र के छींटे जीवन के साथ उसके दोनों साथियों के ऊपर मार दिए। कई दिन के रखे गोमूत्र के छींटे जब उनके मुंह और सिर पर पड़े तो एक अजीब सी दुर्गन्ध उनके नाकों में घुसी।
कमरे में हल्का उजाला था। मिट्टी के तेल की ढिबरी भीत के बीचोबीच बने स्थान पर जल रही थी जिससे काफी ऊपर तक एक काली आकृति बन गई थी। किसी चीज की बहुत मीठी महक भीतर थी जो उनके नथूनों में जब घुसी तो ऐसे लगा मानो चलने की सारी थकान जाती रही हो।
मुख्य गूर पूजा में थे। उनकी तरफ पीठ थी। उसने खजूर की मंजरी पर उन्हें बैठने को कहा तो तीनों बैठ गए। काफी देर भीतर गूर के मन्त्रोचारण की आवाजें मधुमक्खियों की गुनगुनाहटों की तरह उनके कानों में पड़ती रही। जीवन ने एक सरसरी नजर उस तरफ दी जिस ओर गूर पूजा कर रहे थे। दीवार पर तीन पुराने कलैण्डर टंगे थे जिनमें भगवान की तस्वीरें थीं। इनके साथ गड़ी कीलों में एक डमरू और मोरपंखों का बना झाड़न था। नीचे एक ऊंचा आसन बना हुआ था जिस पर लाल कपड़ा बिछा था। पीछे की ओर दो-तीन मूर्तियां थीं जो पहचान में नहीं आ रही थी। उनके ऊपर जगह-जगह सिंदूर के तिलक के निशान थे। ऐसे ही कलैण्डर में भी थे। धूप और ज्योति से वे तस्वीरें काली हो गईं थीं। आसन पर पूजा के कई सामान थे। पूजा समाप्त कर के गूर ने उसी मुद्रा में बैठे पूछ था,
'कैसे आना हुआ बेटा, घर में कोई हारी-बीमारी ?'
'नहीं दादा ऐसा कुछ नहीं है। हम तो बस आपके दर्शन करने के लिए आए थे। सोचा कि मिल भी लें और बातें भी करें।'
जीवन की बातें सुनकर गूर आश्वस्त हो गया था कि झाड़-फूंक या प्रश्न लगाने का देव-कार्य नहीं करना पड़ेगा। इसलिए उसने आसन पर सिर झुका कर माथा टेका और सामने रखा मोरपंख का झाड़न उठा कर तीनों के सिर पर फेर दिया। यह देवता का आशीर्वाद था जिसे उन्होंने सिर झुका कर स्वीकार किया।
गूर अब उनके साथ आकर बैठ गया था।
तुम्हारे पिता तो राजी-खुशी है।'
'आपको बहुत याद करते रहते हैं बड़े दादा। आपकी खूब बातें भी सुनाया करते हैं। आपको सुख-सांद बोल रखा है।'
'बड़े देवो उनको खुश रखे।'
गूर ने आशीर्वाद दिया था।
गूर की उत्सुकता अभी भी बनी हुई थी कि इतनी रात जीवन और उसके साथियों का आना कैसे हुआ होगा। इसी बीच वह छोटा लड़का कांसे की थाली में चार कप चाय बना कर ले आया। सभी ने चाय पी।
रसोई से काफी लोगों की बातें सुनाई दे रही थी। जीवन जानता था कि गूर के तीन बेटे हैं। तीन ही बहुएं और उनके आगे बच्चे भी तो होंगे । इस कच्चे मकान के साथ एक और पक्का मकान रसोई के साथ दूसरी तरफ बना था जिसके भीतर से एक दरवाजा रसोई में खुलता था।
रोटी बनी तो गूर के तीनों बेटे उन्हीं के साथ खाने बैठ गए। बातें भी होती रही थी। खाना खाने के बाद बड़ा बेटा अपने पिता को तम्बाखू भर कर ले आया। पीतल का ऐसा हुक्का जीवन ने पहले कभी नहीं देखा था।
देवता बचा सकता था पहाड़ :
गूर को जीवन बड़ दादा कहा करता था। हालांकि वह एक दो बार ही उनसे मिला था। सिमेंट विरोध के कारण बातें वहां तक भी पहुंच रही थी जिस कारण जीवन के लिए सभी के मन में प्यार और आदर भरता जा रहा था।
जीवन ने ही बात शुरू की थी,
'आपने तो सुना होगा कि मुख्य देवता की जगह चरांद में सिमेंट का कारखाना लग रहा है। वह तो देवता की जगह है दादा, तो क्या आप लोगों से किसी ने बात की उसके लिए।'
'नहीं बेटा हमारे से क्यों कोई बात करेगा । अब कौन देवता को जानता-पहचानता है।'
'पर दादा वह तो बरसों से मानी-पूजी हुई जगह है। आज भी लोग वहां पशु तो चराते हैं पर एक तिनका तक नहीं तोड़ते-काटते। इतना तो देवता का आदर करते ही हैं वे लोग।'
'तुम्हारी बात ठीक है बेटा पर सरकार थोड़े यह जानती है। सुना है हमारा एम.एल.ए. भी ऐसा ही चाहता है।'
'यही तो मुश्किल है दादा, वह साथ होता तो ऐसी नौपत नहीं आती। आप तो जानते हैं वहां कारखाना लगा तो पत्थर के लिए पहाडों का नाश होगा। गांव उजडेंगे। लोग बेघर हो जाएगे। बेचारे अपनी जगह-जमीन छोड़ कर कहां जाएंगे।'
'यही चिंता की बात है बेटा........यही चिंता खाए जा रही है जब से सुना है हमने। पर तू और तेरे साथी तो इसके खिलाफ कुछ कर रहे हैं। देवो तुम्हारा भला करेगा।'
गूर ने लम्बी सांस ली थी।
'आप बचा सकते हैं बड़े दादा उस चरांद को। चरांद बचा तो पहाड़ बचेंगे और लोग शांति से रह पाएंगे।'
गूर और उसके बेटों ने जीवन को आश्चर्य से देखा था।
'हम कैसे बचा सकते हैं उनको बेटा'
'बचा सकते हैं बड़े दादा। आप मुख्य गूर हैं देवता के। वह देवता की जगह है। हम चाहते हैं देवता की महा पंचायत बुलाई जाए।'
'महा पंचायत?' सभी ने इस पर अचम्भा दर्शाया था।
गूर कई पल हुक्का सुड़कता रहा था। आंखें बंद थी जैसे देव शक्ति से कुछ देख रहा हो। आंखे खोली तो गूर की शक्ल बदल रही थी। जीवन ने अपने पूरे शरीर में एक अजीब सी सिहरन महसूस की। यह क्या था उसे नहीं पता। पिता बताते थे कि ऐसा होना देवता की कृपा होना होता है। तो क्या जीवन पर और उसके इलाके पर देवता की कृपा होगी..............?
'पर आज कौन करेगा बेटा। है किसी का सामर्थ्य। कोई इस काबिल गूर भी तो नहीं है अब जिसने दरिया में कूद कर सूखी रेत अपनी मुट्ठी में लाई हो।'
'आप जो है बड़े दादा। हम बहुत आस लेकर आए हैं आपके पास।'
जीवन ने जब हाथ जोड़ कर निवेदन किया तो गूर के चेहरे पर कई भाव आते-जाते रहे। फिर सहज होकर करने लगा,
'अब मेरी उम्र नहीं रही है बैटा।'
'देवता की कोई उम्र नहीं होती बड़े दादा। हमारे पास यही एक रास्ता बचा है। हो सकता है यह इलाका बच जाए। पहाड़ बच जाए। गरीबों की जमीने बच जाए। लोगों की आस्था और विश्वास आज भी देवता पर है। आप पर भी उतना ही है। हो सकता है बात बन जाए।'
जीवन ने अपनी बात जारी रखी थी।
'हमारे पहाड़ इन्हीं देवताओं ने बचाए हैं। जब कोई डाक्टर-वैद्य नहीं थे। अस्पताल नहीं थे। सुख-सुविधाएं नहीं थी तो ये देवता ही लोगों के सुख-दुख के साथी थे। इन्हीं के सहारे लोग जीवन काटते थे। अच्छे-बुरे की पहचान करते थे। इसीलिए आज भी लोगों के मन में इनके प्रति आदर और भय है। हमारे देश में क्या कुछ नहीं घट रहा है धर्म के नाम पर। हमने ऐसे-ऐसे अपराधियों को संत और भगवान बना दिया है जो आज हमारे देश में राज करने की सोच रहे हैं। उनके काले कारनामें, छल-कपट और बड़े कारोबार हमें नहीं दिखते दादा। हम अंधे होकर उनके पीछे लगे रहते हैं और वे हमारी भावनाओं से खेलते जाते हैं। फिर हमारे देवता तो हमारी परम्पराओं के आधार हैं। इनके चमत्कार और शक्तियों की बातें किवदंतियां हो सकती हैं लेकिन लोगों के मन में जाने-अनजाने जो डर देवताओं का बैठा है वही उनका विश्वास और आस्था है। यही दो बातें लोगों को कहीं न कहीं आज भी बुरा करने से रोके रखती है। वे देव-निर्णय और देव-आदेशों के विरुध्द जाने का साहस नहीं करते। वे उनके दोष का भागी नहीं बनना चाहते। आप तो जानते हैं न दादा, माना कि चंद लोगों के स्वार्थ और पैसे की चकाचौंध में मन उखड़ गए हैं पर उसके बावजूद आस्था मरी नहीं है।'
जीवन यह कहते हुए थोड़ी देर चुप रहा और फिर कहने लगा,'आप देवता के नाम से इस कारखाने को रोक सकते हो बड़े दादा। जब लोग यह महसूस करेंगे कि देवता नहीं चाहता कि सिमेंट कारखाना उसकी जगह में लगे तो लोग जरूर इसका विरोध करने लगेंगे। और बड़ी बात तो यह है दादा कि कारखाना वहीं लग रहा है जो देवता की जगह है, चरांद है, जहां से लोगों ने आजतक एक तिनका तक नहीं उठाया है। उस जगह पर उनकी आस्था है। और जब आस्था पर चोट पहुंचती है तो वह दिल पर सीधी लगती है। इस पर अगर देवता की तरफ से आप मना कर दें तो वह सोने पर सुहागा हो जाएगा।'
जीवन की बातें सुनकर गूर काफी प्रभावित हुआ था। वह सोच रहा था कि यदि देवता के नाम से यदि कोई बड़ा ऐसा काम बन जाए जिसमें हजारों लोगों का हित हो तो क्यों न उसे पूरा किया जाए। गूर ने अपने भीतर कुछ उसी तरह की जीवन्तता महसूस की थी जैसे वह कभी अपनी जवानी में किया करता था।
देवता की तरह थी मुख्य गूर की मान-प्रतिष्ठा :
मुख्य गूर का हुलिया गजब का था। उसके सिर के बाल अभी भी बिल्कुल काले थे जिन्हें वह पीछे की तरफ पीठ पर फैलाए रखता था। वह हमेशा सफेद गांधी टोपी और अपने घर की बनी ऊन की सदरी पहनता था। सदरी के नीचे जो कपड़े यानि कुरता पायजामा होता वह भी घर की ऊन के होते। उसने कभी भी न तो दूकान से अपने लिए कपड़े लाकर सिलवाए और न ही दर्जी के सिले कपड़े पहने। वह हमेशा ऊन कातता रहता था। गांव-बेड़ में जहां भी जाता उसके पास एक पीतल के छोटे हुक्के के अतिरिक्त एक बांस की टोकरी होती जिसमें भेड़ की ऊन के फाहे और कातने की तकली रखी होती थी। वह जहां भी बैठता, तम्बाकू पीते हुए ऊन कातने लग जाता। लोग बताते हैं कि वह किसी के घर का पानी तक नहीं पीता था। उसे लोग इतना गुणी और देवता-सिध्द मानते कि वह हथेली पर सरसों जमा सकता था।
घर में भी आज तक उसके पुराने और कठोर नियम थे। हालांकि अब दस सालों से वह किसी देव कार्य में नहीं जाता था क्योंकि उसने अपने बेटे इसके लिए तैयार कर लिए थे लेकिन देव-नियमों का पालना आज भी पहले की तरह करता था। वह सुबह चार बजे उठता और सीधा गांव के नीचे एक विशाल मजनू के पेड़ के साथ कुदरती बांवड़ी के पानी से हाथ-मुंह थोता। टिम्बर और बणे की बीड़ी से दांत साफ करता। दूर जाकर जंगल-पानी हो आता। एक पत्थर पर झाड़ियों की ओट में नहाता और पानी का घड़ा भर कर घर लौटता। वही पानी देवता की पूजा में काम आता। आज भी देवता के मंदिर के लिए इसी बांवड़ी से पानी जाता है।
देवता की पूजा वह अपने घर से ही करता था। उसका रहने का कमरा अलग था जहां वह किसी को आने नहीं देता था। एक किनारे पूजा की जगह थी और दूसरे किनारे भूमि-आसन था जहां वह सोया करता था। उसके पास हमेशा एक झोला रहता जिसमें हस्तलिखित एक मैली सी पोथी होती । उसे वही पढ़ और समझ सकता था। उसी झोले में एक रूमालनुमा कपड़े में पीतल का चकोर पाशा बंधा होता। वह तकरीबन चार इंच लम्बा और पैंसिल जितना मोटा था। उसी झोले में काले और सफेद सरसों के दाने रखे होते। काली मिर्च, लौंग और इलायची रखी होती । कमरे के बाहर भीत में एक तीरी सी बनी थी, जिसमें मिट्टी की एक छोटी सी डिबड़ी में हमेशा गौंच यानि गौमूत्र रखा होता जिसमें हरे बणे की छोटी टहनी ठूंसी रहती। बाहर से आकर जब भी उसे भीतर अपने कमरे में जाना होता तो वह उस टहनी से अपने ऊपर गौंच के छींटे जरूर देता। बणे की उस हरी डाली की पत्तियां भी गौंच से निपट काली हो जाती।
तीनों बेटे इकट्ठे रहते लेकिन पिता की तरह वह भी अपनी-अपनी तरह से देव-नियमों का पालन करते,जितना उनके लिए आज के समय में करना संभव हो सकता था। पिता की यह खासियत थी कि अपने लिए जितने कड़े नियम उसने बना रखे थे, उन्हें वह दूसरों पर नहीं थोपता था। इसलिए बेटों और बहुओं को अपने तरीके से घर में जीने और रहने की आजादी तो थी लेकिन देव-परम्परा से बंधे होने के नाते अपने घर और परिवार की प्रतिष्ठा के अनुरूप वे कभी ऐसा काम नहीं करते जिससे पिता या गांव के लोगों को उनकी किसी आदत या बात से परेशानी हो या उन पर उंगली उठाई जाए।
मुख्य गूर की आज भी गांव-परगने में देवता की तरह इज्जत थी। लोगों का उसके पास तांता लगा रहता था। कोई न कोई अपने-अपने दुख, तकलीफ लेकर उसके पास चला रहता। वह किसी को अपने हाथ की मिट्टी भी दे देता तो लोग उसे देवता का आशीर्वाद समझ कर ग्रहण करते और उसी विश्वास से अपने दुख-दर्द का निवारण कर लेते। उसके पास जब भी कोई आता तो वह अपने कमरे में जाकर अपनी ऊन की सुथ्थण बदल कर एक सफेद चादर कमर में लपेट लेता। चूल्हे से एक कड़छी में आंग के अंगारे लाकर उसमें अपने पास रखी कोई विशेष प्रकार की पत्तियां डालता जिससे धुंआ उठता और वह कमरे में पीछे की ओर बनी खिड़की का पक्का खोलकर मंदिर की तरफ उसका धूप देता। झोले से उस पाशे को निकाल कर हस्तलिखित पोथी पर कई बार डालता रहता। साथ ही एक कांसे की थाली पर गेहूं के दाने रख और उठा कर कुछ गिनता-पढ़ता रहता और सही प्रश्न लगाता। कई बार ऐसी बातें लोगों को बता देता कि सुन कर हैरान रह जाते। वह इलाज के लिए गेहूं के दाने और कई चीजों की धुणी बनाकर उसे कई पल अपनी मुट्ठी में बंद कर मंत्र बोलता और दोबारा पीछे की खिड़की से उस हाथ को देवता की तरफ करके कुछ बुदबुदाता। फिर आए व्यक्ति को दे देता। यह उसके इलाज का तरीका था और यही दवाईयां, जिससे न जाने कितने लोग ठीक होते रहे होंगे,कितने पशुओं की बीमारियां जाती रही होंगी और कितने घर टूटने-बिखरने से बचते रहे होंगे। यह अटूट आस्था और विश्वास का सिलसिला था जो न जाने कितने बरसों से चला आ रहा था। गूर का अपने देवता पर और लोगों का उस गूर के दिए दानों और धुणी पर अटूट विश्वास था।
एक सदी के बाद हो रही थी देव महा पंचायत :
देवता की महा पंचायत के लिए जब मुख्य देवता का गूर और देव समिति तैयार हो गए तो जीवन और उसके साथियों ने दूसरे दिन से ही काम शुरू कर दिया। शहर जाकर तकरीबन बीस हजार छोटे पोस्टर छापे गए थे जिसमें महा देव पंचायत होने का विवरण था। पोस्टर के सिरे पर मुख्य देवता के मंदिर का फोटो था और उसके नीचे मुख्य गूर का चित्र छपा था। उसमें बताया गया था कि ऐसी पंचायतें पूर्व में कब-कब और क्यों हुई थी। जीवन की संस्था ने खूब मेहनत की थी और घर-घर इस बात को पहुंचा दिया था। उसमें यह साफ लिखा गया था कि कम्पनी द्वारा लगाए जा रहे सिमेंट कारखाने के लिए सरकार और कम्पनी पहले स्वीकृति ले। इसीलिए ही इस महा देव पंचायत का आयोजन किया जा रहा है।
कम्पनी को अपने इलाके से भगाने का इससे बेहतर और बड़ा उपाय कोई दूसरा नहीं था। जीवन और उसके साथियों को विश्वास था कि उनका देवता उनकी जरूर सहायता करेगा, जिसके लिए महा पंचायत का आयोजन जरूरी था। लोगों का कहना था कि पिछले सौ सालों में उन्होंने इस तरह की महा देव पंचायत कभी नहीं बुलाई थी। इसलिए क्षेत्र के लोगों की उत्सुकता इस पंचायत को लेकर पल-पल बढ़ती चली जा रही थी। देव समिति ने इस महा पंचायत में उपस्थित होने के लिए न केवल क्षेत्र के सांसद और विधायक को विशेष रूप से आमन्त्रित किया था बल्कि प्रदेश के मुख्यमन्त्री को भी देवता की ओर से उपस्थित होने के लिए कहा था। देव समिति का मानना था कि इस फैक्ट्री की स्वीकृति के लिए मुख्य रूप से ये तीन राजनेता ही उत्तरदायी है और यह बात सत्य भी थी ।
लोगों में महा पंचायत को लेकर जितनी उत्सुकता थी विधायक और उसके साथी उतने ही परेशान थे। यहां तक कि सरकार भी इस नए 'देव खेल से चिंतित थी क्योंकि इससे पूर्व देवता के नाम पर एक-दो छोटी योजनाएं बाधित हो गई थी।' इलाके का विधायक यह कतई नहीं चाहता था कि इस तरह की कोई पंचायत हो लेकिन उसके बावजूद जीवन उसमें कामयाब हो गया था, जिससे वह बहुत परेशान था।
पारम्परिक देव-वाद्य के साथ हुआ था गूर का प्रस्थान :
जिस दिन महा पंचायत होनी थी पूर्व गूर ने अपना पारम्परिक परिधान ही पहना था। उसने पहले की तरह आज सारी देव क्रियाएं एन तड़के पूर्ण कर ली थी। जब लोग उसे लेने आए वह अपने कमरे में आसन लगाए ध्यान मुद्रा में बैठा था। उसको ले जाने के लिए लोगों ने एक पालकी तैयार की थी जिसे तरह-तरह के जंगली फूलों से सजाया गया था। जब वह ध्यान से उठा तो सामान्य नहीं लग रहा था। उसके चेहरे पर अजीबो-गरीब भाव उतरते-चढ़ते नजर आ रहे थे जिससे चेहरा आग की तरह दमदमा रहा था। बाहर निकलते ही लोगों ने उसे पालकी में बैठने का आग्रह किया लेकिन उसने साफ मना कर दिया। उन्हें उसका निर्णय मानना पड़ा, लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने पालकी अपने साथ रखी थी।
उसके घर से निकलते ही देव-वाद्यों से पूरा गांव और इलाका गूंजने लगा था। इन वाद्यों में तीन मुख्य वाद्य आकर्षण के केन्द्र थे जिन्हें बरसों पहले इसी तरह की किसी महा पंचायत में बजाया गया होगा। इनके बजाने वालों में अब कोई पूर्व वादक मौजूद नहीं था परन्तु उन्हीं की पीढ़ी के जानकार लोगों को उन साजों को बजाने बुलाया गया था। इनमें देव नगाड़ा, भेखल का बड़ा ढोल और और नरसिंघा था। साधारण वाद्यों में शहनाई, छोटे दो ढोल, तीन चांबी
ढोल, दो करनालें और चार खंजरियां थीं। महा पंचायत के स्थान तक पहुंचते-पहुंचते हजारों लोग उनके काफिले में शामिल हो गए थे। शायद ही लोगों ने इस तरह का परिदृश्य अपने जीवन में कभी देखा होगा। उनमें गजब का उत्साह था। अपनी सुरक्षा का विश्वास और अपार देव-आस्था थी।
इस देव पंचायत को देखने हजारों लोगों का हुजूम पहले ही उमड़ पड़ा था और चरांद पूरी तरह लोगों से भर गया था। जैसे ही गूर वाद्यों और लोगों की भीड़ के साथ देवता के मूल स्थान पर पहुंचा, देवता की जय जयकार से वातावरण गूंजने लगा। चारों तरफ से फूलों की वर्षा हो रही थी। देखते ही देखते कौओं का एक बड़ा दल पहले आसमान पर मंडराता रहा और उसके बाद वे पीपल की टहनियों पर विराजमान हो गए थे। इसी तरह गिध्द जिन्हें लोगों ने एक अर्से बाद देखा था, भी एक तरफ पीपल की टहनी पर बैठ गए थे। इसके साथ ही तरह-तरह के पक्षी भी चहचाते हुए पीपल पर डेरा डालते गए जैसे वे भी इस ऐतिहासिक और परम्परागत मौके के गवाह बनना चाहते हो। बंदरों की एक टोली भी पीपल के पेड़ पर मौजूद थी।
मुख्य गूर का स्वागत परम्परानुसार जीवन और उसके साथियों ने किया था। बेमन से इलाके का विधायक, पंचायत प्रधार और दूसरे कम्पनी के अधिकारी भी उपस्थित थे क्योंकि देव समिति ने उन्हें भी महा प्रचायत में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया गया था। परेशानी और घबराहट के भाव उनके चेहरों पर साफ झलक रहे थे।
गूर अब देवता बनने की प्रतिक्षा में था :
मुख्य गूर ने देव शिला से काफी दूर अपने जूते उतारे। एक पंच ने पीतल की सुराही से गूर के हाथ-मुंह और पैर धुलाए। चादर की ओट में गूर ने पायजामा उतार कर धोती पहनी। गोमूत्र और गंगाजल से अपने ऊपर छींटे दिए और शिला पर दंडवत प्रणाम किया। फिर दाहिना पैर रखा और शिला के मध्य रखे आसन पर विराजमान हो गया। उसने हाथ जोड़ कर परिक्रमा करते हुए सभी का अभिवादन स्वीकारा । पूजा का सारा सामान शिला के साथ पहले से ही रखा गया था। साथ ही आग की धूनी भभक रही थी।
गूर ने पास पड़ा लोहे का धुड़छ उठाया और उसमें अपने हाथ से अंगारे भरे। एक कटोरी में कई तरह की हरी-हरी पत्तियां और गाय का घी रखा था जिसे उसके ऊपर उड़ेल दिया। अब गुंगल धूप लिया और बारीक करके उस पर डाला। धुंए का एक बवंडर हवा के साथ सीधा पीपल पर पसर गया जिससे सारे पक्षी फड़फड़ाए और उनके चहचाने की कई मधुर ध्वनियां लोगों के कानों में पसर गई। गूर अब कई पल पारम्परिक विधियों से देवता की पूजा करता रहा। जैसे ही उसके शरीर में हल्की कंपकपी हुई पास खड़े कारदार ने गूर को गरी के गोले पकड़ाने शुरू कर दिए। पांच गोले थे। पलक झपकते ही उसने बारी-बारी उन्हें शिला पर पटका और मुख्य देवता के साथ सहायक देवताओं को बलियां देकर उनका आहवान किया। लगा जैसे वह शिला थरथरा गई। गरी के टुकड़ों को चारों तरफ फैंका। अन्य सहायक गूर भी वहां पधार गए थे जिन्होंने अपना-अपना स्ािान ग्रहण कर लिया था। देव नगारची ने पहला बैणा नगारे पर मारा। उसके बाद भेखल का ढोल बजा और फिर नरसिंगा। इसी के साथ सारे वाद्य बजने शुरू हो गए। हर तरफ
अपार श्रध्दा थी। विश्वास था। जोश भरा था। लगभग आधे घण्टे तक वाद्यों ने ऐसी रंगत जमाई
कि पूरा इलाका उनकी घ्वनियों से सराबोर हो गया। हर उपस्थित आदमी की जबान पर देवता का आहवान था।
गूर का आदेश देवता का आदेश था :
और जब मुख्य गूर में देव छाया प्रवेश हुई तो उसकी एक चीख से जैसे नदी का बहाव थम गया हो........सूरज का रथ रूक गया हो.........लोगों के दिलों में अजीब तरह की धड़कने हुईं। पीपल पर बैठे असंख्य पक्षी एकाएक उड़े और फिर टहनियों पर बैठ गए। उनके उड़ने की फड़फड़ाहट ने वाद्यों के संगीत से मिलकर एक भयंकर घ्वनि पैदा की मानों चारों तरफ के पहाड आपस में टकराकर गिर-पड़ रहे हो। लोगों की सांसे थम गई थीं। कुछ पलों के लिए उस चीख का हर तरफ साम्राज्य रहा। देव वाद्य भी एक पल के लिए उसमें दब गए। गूर ने अपना दाहिना हाथ शिला पर पटका और अचानक वाद्य बजने बंद हो गए थे। एक गहरा सन्नाटा............मानो मध्य रात्री का समय हो। अब गूर की सांसे लोगों को सुनाई दे रही थी। हअस......हअस........हअस.....हहअअस।
जिस जगह गूर का हाथ पड़ा था वहां से कई कंकड़ उठे जो अचानक विधायक और कम्पनी के अधिकारियों के माथे पर लगे। इस अप्रत्याशित वार से वे सकपका गए थे। पत्थर की बारीक कचरें उनकी आंखों और मुंह के भीतर घुस गईं थीं। किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया। कोई सहानुभूति कहीं नहीं दिखाई दी। भय का वातावरण चारों तरफ पसर गया था। यह भय वहां छाया रहा जिनके मन खोट और पाप से सने थे। साफ और निर्मल मन में सुरक्षा और आत्मविश्वास था। गूर ने हाथ मारते ही फूली उछासों के बीच कुछ बड़बड़ाना शुरू किया। उसने अपनी बोली में अपने अतीत की पूरी गाथा सुनाई जिसे देव-पंच समझ सकते थे। वे हर लाइन के बाद 'जय देवा' और 'सत वचन' कहते जा रह थे। जब गाथा पूर्ण हुई तो गूर फिर चीखा और दोनों हाथ शिला पर पटक दिए।
'सुनो..........सुनो................पंचो, यह वक्त बुरा है। मेरे इलाके के लिए बुरा समय है पंचो। पर यह आम जगह नहीं है पंचो। चरांद नहीं है। देवता की नगरी है ये। मेरी जगह है ये। आज की नहीं महाभारत के समय से लेकर। मैं तब भी था और आज भी हूं। पर तुम नहीं जानते मेरे को।'
इसी के साथ पुन: देव वाद्य बजने शुरू हो गए। अपनी दोनों मुट्ठियों को अजीब तरह से एक दूसरे में गूंथे वह देव छाया से खेल रहा था। बाल बिखरे हुए थे। सांस फूली हुई थी। आंखे लाल थी। चेहरा डरावना हो गया था। वह कभी शिला पर औंधे मुंह हिंगरता, कभी जानुवों के बल ऊपर उठता। उसने ऐसा कई बार किया और धीरे से दाहिना हाथ शिला पर पटक दिया। उसका शिला पर हाथ पटकने का मतलब देव वाद्यों का शांत होना होता था जिसे बजंतरी बखूबी समझते थे।
पंच हाथ जोड़े खड़े हो गए थे। सभी एक स्वर में विनती कर रहे थे,
'शांत देवा, शांत। हम तेरे बच्चे हैं देवा। हमारा रक्षा करना देवा। तू सतयुग का देवता
हम कलियुग के पापी देवा। इसलिए तेरे को जगाया आज। तेरी पुरानी जगह पर लाया तेरे को। महा पंचायत की। बरसों बाद की तेरी पंचायत। फैसला दे तू। हमारा आज कोई नहीं है देवा। तू ही है। यह फैक्ट्री हम को बराबाद कर देगी। हम तेरे को नहीं छोड़ना चाहते। हमारे को तेरी जमीन नहीं बेचणी। हमारे को नहीं देणी अपनी जमीन। हमारे को नहीं चाहिए पैसे। तू फैसला कर देवा, तू।'
'कहां है वह लड़का जिसने महा पंचायत की सोची। जानते हो पंचो कब हुई थी मेरी महा पंचायत.......जानते हो तुम।'
'नहीं देवा, म्हारे सामने तो नहीं हुई तेरी महा पंचायत। इतना बुरा वक्त भी नी आया देवा। कभी हमारे सामने अकाल भी नहीं पड़ा न कोई महामारी फैली।
पंचों ने अपना स्पष्टीकरण दिया था।
जीवन अब गूर के समक्ष था। हाथ जोड़े हुए कहने लगा था,
'यह वक्त भी अच्छा नहीं है देवा। तेरे वजूद पर हमला है। तेरी विरासत को मिटाने का परपंच है। जब तू ही नहीं रहेगा देवा तो तेरी प्रजा कहां रहेगी। तू तो हमारे दुख-सुख का साथी है देवा।'
जीवन ने नपी तुली बात देवता के सामने रखी थी। गेंद सीधी गूर के पाले में थी। देवता के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह था।
गूर इस बार जोर से दहाड़ा था,
'पंचो सुणो, तू भी सुण लड़के। मेरी जनता सुणे, मेरी जगह सणे, मेरे साथ जो दूसरे देवता है वे सुणे। सौदेबाजी करने वाले सुणे। पहाड़ खरीदने वाले सुणे। इनका व्यापार करने वाले सुणे। कम्पनी के लोग सुणे और जो नहीं आए वे भी सुणे। मेरी धरती पर कोई मशीन नी चलेगी । मेरे पहाड़ों के सीने में धमाके नहीं होंगे। मेरे पहाड़ों पर एक खंरोच भी आई तो सर्वनाश। पंचों इनको बोलो यहां से चले जाए, कोई फैक्ट्री नहीं लगगेगी मेरी जगह पर। नहीं तो पानी में आग लगेगी । विनाश होगा। सब मरेंगे सब। ये नहीं सोचणा ये नंये सिर की हांके हैं।'
यह कहते हुए गूर कई पल खेलता रहा। देव वाद्य बजते रहे। उसने काफी समय बाद शिला पर फिर दोनों हाथ मारे। यह महा पंचायत की समाप्ति का आदेश था। वाद्य एक सुरील लय के साथ शांत हो गए थे। उनकी ध्वनि काफी देर आर-पार की धारों और घाटियों में जैसे विचरती रहीं।
गूर को तीन-चार पंचों ने खड़ा किया। देव शिला से बाहर लाया और एक जगह बिठा दिया था।
विधायक ने एक सरसरी निगाह भीड़ पर डाली। हजारों लोग अपनी-अपनी जगह पर हाथ जोड़े खड़े थे। उसे एक पल के लिए लगा जैसे वे उसी की ओर देख रहे हैं और कभी भी उनके सब्र का बांध टूट कर उसे बहा ले जा सकता है। उसने वहां से खिसकना ही मुनासिब समझा था। कम्पनी के अधिकारियों और दूसरे जन-प्रतिनिधियों का कोई अतापता नहीं चला कि
कब वे लोग वहां से खिसक लिए थे।
महा पंचायत खत्म हो गई थी। पंचायत में हुए निर्णय का इलाके के लोगों ने स्वागत किया था। जीवन को लोगों का अथाह प्यार मिल रहा था।
आस्था ने जुलूस की शक्ल ले ली थी :
विधायक और कम्पनी के अधिकारी हैरान-परेशान उस छोटे से पहाडी बाजार में पहुंचे। उनके साथ इलाके के कुछ पंचायत प्रधान भी थे। वे ऐसे चुपचाप चल रहे थे मानों उनके मुंह से किसी ने जुबान खींच ली हो। उनके चेहरे पसीने से तर-ब-तर थे। धीरे-धीरे सभी ने खिसकना मुनासिब समझा। विधायक को कुछ सूझ नहीं रहा था। वह अपने साथियों से सहारा चाहता था। उनसे बातचीत करना चाहता था। लेकिन जब उसे लगा कि वह सड़क के बीचोंबीच बिल्कुल अकेला रह गया है, तो वह चौंक गया। उसने पीछे मुड़ कर देव चरांद की ओर देखा। लोगों की भीड़ एक विशाल जुलूस में बदल गई थी और उसी तरफ आ रही थी। सबसे मुख्य गूर था। उसके साथ-साथ जीवन पंडे, उसके साथी, देव पंच और बजंतरी थे। उनके पीछे तमाम लोग। नारों की आवाजें आर-पार घाटियों में टकराकर भयंकर शोर पैदा कर रही थी....................
हमें नहीं चाहिए..........सिमेंट फैक्ट्री
कम्पनी के लोग ..................वापिस जाओ
विधायक-सरकार ................मुर्दाबाद
यह शोर विधायक के मस्तिष्क में घुस गया। उसे लगा जैसे हजारों बर्रों ने उसके सिर-माथे पर आक्रमण कर लिया हो। वह भागना चाहता था पर टांगों में जोर नहीं था। चिगाना चाहता था पर जीभ तालू में चिपक गई थी। उसकी आंखें बंद हो गई। वह मानो भयंकर घने अंधेरे में हो। उसने मुश्किल से दोनों हाथों से अपना सिर झिंझोड़ा। अपनी राजनीतिक सत्ता को याद किया। उसे लगा जैसे चुनाव हो रहे हैं और उस जुलूस में शामिल सारी जनता उसके खिलाफ वोट डाल रही है। यह सोचते ही वह धड़ाम से बीच सड़क में गिर गया था। दोनों तरफ से आती-जाती गाड़ियां रूक गई थीं।
जिस किसी ने उसे देखा उन्होंने यही समझा कि विधायक को देवता का दोष लग गया है।
हरनोट जी से हिन्दी पाठक अच्छी तरह परिचित हैं ।
संपर्क-
ओम भवन,
मोरले बैंक इस्टेट, निगम विहार,
शिमला-171002
फोन: 098165 66611, 094180 00224
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