कविता - नीलम शर्मा अंशु



1.

तू किसी को ख़्वाब की मानिंद
अपनी नींदों में रखे ये रज़ा है तेरी
पर यहां किस कंबख्त को नींद आती है ?
अरे, तुझसे भले तो ये अश्क हैं
कभी मुझसे जुदा जो नहीं होते!
टपक ही पड़ते हैं
भरी महफि़ल या तन्हाई में
कहीं भी, कभी भी
बेमौसम बरसात की तरह।

2.

ये हो न सका !
चाहा तो था बहुत
कि दिल में नफ़रत का गुबार
भर जाए तुम्हारे प्रति
पर जहां पहले से ही
मुहब्बत पाँव पसारे बैठी थी
वहाँ चाहकर भी ये हो न सका
मुझे माफ़ कर देना, ऐ दिल !
मैं दिमाग़ की सुन न सका
दिल और दिमाग़ के द्वन्द्व में
ये हो न सका
चाहा तो था बहुत......

3.

कैसा लगता है.......

मुझे पता है कैसा लगता है.......
जब  सब कर रहे होते हैं इंतज़ार
बड़ी बेसब्री से, रविवार की शाम।
कब शाम हो और मेरी आवाज़
लरज़ कर पहुंचे उन तक
हवाओं की मार्फत/
हवाओं पर होकर सवार।
मुझे यह भी पता है
कैसा लगता है जब
शहर में बारिश, आंधी-तूफान का
नियमित दौर जारी हो।
यह भी कि जब आप घंटों तक
अपने सुनने वालों का मनोरंजन करें,
अच्छे-अच्छे नगमें सुनाएं।
कैसा लगता है.....
और फिर घर वापसी के वक्त
मौसम की बेवफाई के कारण
यातायात के साधन भी
धोखा दे जाएं,
विशेषकर शहर की धुरी मेट्रो।
मेट्रो के निकट पार्किंग में धन्नो
इंतज़ार करती रहे और आप
उस तक पहुंच ही न पाएं
धन्नो तक पहुंचने में ही
घड़ी की सुईयां 8 से 10 पर पहुंच जाएं
और उस तक पहुंचते ही
वो मात्र 15 मिनटों में घर पहुंचा दे
रश्क होता है धन्नो की वफ़ा पर
दिल रोता है अन्य साधनों की बेवफ़ाई पर।
                                                
4.

आई बैसाखी

आज फिर आई है बैसाखी
दिन भर चलेगा दौर
एस एम एस, ईमेल, फेस बुक पर
बधाई संदेशों का....
याद हो आती है
इतिहास के पन्नों में दर्ज
एक वह बैसाखी जब
दशमेश ने 1699 में
जाति-पाति का भेद-भाव मिटा
मानवता की रक्षा खातिर
सवा लाख से एक को लड़ा
नींव रची थी खालसा पंथ की
शत-शत नमन, शत-शत वंदन
दशमेश के चरणों में।
क्या सचमुच आज
हर्षोल्लास का दिन है?
ऐसे में जब याद हो आती हो
इतिहास के पन्नों में दर्ज
1919 की वह खूनी बैसाखी
जब जलियांवाले बाग में
हज़ारों बेगुनाह, निरीह, निहत्थी ज़िंदगियां
बर्बरता और क्रूरता का शिकार हुईं।
उन परिजनों तक
कौन पहुंचाएगा संवेदना संदेश
शत-शत नमन, वंदन उनकी अमर शहादत को
जिसने रखी थी नींव इन्क़लाब की।

5.

इस धरा को जन्नत बनाएं हम
इक बूटा मुहब्बत का लगाएं हम
महका कर हर तरफ प्यार की खुशबू
मिटाए नफ़रतों का ज़हरीला प्रदूषण
आओ इस धरा को जन्नत बनाएं हम

न तेरी न मेरी हो सबकी ज़मीं ये
न तेरा न मेरा हो सबका चमन ये
हो खुशनुमा, हरियाला, प्यारा सा वतन ये।
आओ इस धरा को ज़न्नत बनाएं हम
इक बूटा मुहब्बत का लगाएं हम।

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Grammar, n.: A system of pitfalls thoughtfully prepared for the feet for the self-made man, along the path by which he advances to distinction.
Ambrose Bierce
(1842-1914)
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