शांति कीतलाश में दिन रैन कस्तूरा हो भटक रहे मेरे शहर में एकाएक किसी ऐरे गैरे नत्थूखैरे बाबा के आने पर जो हाल बेहाल हो जाता है वही हाल बेहाल हिंदी पखवाड़े के आनेपर मेरे देश का हो जाता है। जो आदरणीय बंधु सारा साल अंग्रेजी थूक- थूक कर पूरेदेश का थोबड़ा थुकियाए रहते हैं इन दिनों वे बगल में हिंदी के बजट रुपी बकरे कीखाल लिए, जुबान पर चाशनीकी तरह किसी के अच्छे से निबंध के दो चार पहरे चिपकाए, करमंड़ में सौदो सौ भारी भरकम ठेठ हिंदी के शब्द लिए, हाथ में हिंदी के पॉलिशड्शब्दों की मालाफेरते- फेरते,हर विभागमें हिंदी की धुनी जमाए स्वयं को देश का सबसे बड़ा हिंदी प्रेमी कहते जीभ सुखाएनहीं थकते। वाह रे बायस समय के फेर! विभाग हैं कि इस पखवाड़े हिंदी के साथ की सारेसाल की गुस्ताखियों से उऋण होने के लिए के हिंदी के कल्याणार्थ सड़कों पर कबाड़ीके कपड़ों के ढेरों की तरह बजट के ढेर लिए बैठे होते हैं। पर बेचारों को उठानेवाला ही नहीं मिलता। अब वे भी सच्चे हैं। पंद्रह दिन में साल भर पिचके पेट रहनेवाला कितना की खा लेगा? इन दिनों जिस विभाग ने साहित्यिक गऊओं को जितना ग्रास दियाउसे हिंदी ने उतना अधिक फल दिया।
सच कहूंतो हिंदी पखवाड़े में इतना आकर्षण होता है कि․․․․कि इतना तो अपने जमाने में मेनका और उर्वशी में भी नहीं रहाहोगा। अगर आज भी मेनका , उर्वशी होतीं तो इस पखवाड़े में सारा साल इनकी चौखट पर पड़ेरहने वाले बुद्धिजीवी इन दिनों हिंदी की चौखट पर ही ड़ार लेते,पेट पर हाथफेरते ही दिखते,मेरी तरह।सारी उम्रअपने पुरखों और हिंदी को दाने दाने से मोहताज रखने वाले उनका श्राद्ध जिस लगन सेकरते हैं तो लगता है देश में धर्म अभी भी शेष है। पूरी तन्मयता से , सारी लोक लाजछोड़ पांव में हिंदी के घुंघरू बांध हे हर मंच पर नाचने वालो हिंदी प्रेमियों!! आपकोशत् शत् नमन्! आपका हिंदी प्रेम हर पे्रम से बड़ा है। याद रखना! आपके कंधों परही हिंदी का सारा भार है। पंद्रह दिन तक तो आप हर मंच पर ऐसे नाचो कि घुघंरू टूटजाएं तो टूट जाएं। लोक लाज छूट जाए तो छूट जाए। पर हर हाल में बजट खत्म होना चाहिए।अगर ये न हुआ तो हिंदी को बहुत बुरा लगेगा कि कैसे हिंदी प्रेमी हैं? उसके लिए रखाबजट तो खा नहीं सके और फिर दावा ये कि हमसे बड़ा कोई हिंदी प्रेमी नहीं! आप ये सबकर अपना पेट नहीं हिंदी का पेट भर रहे हो। इन दिनों आप जितना खाओगे वह आपको नहींदुर्बल हिंदी को ही लगेगा। आप तो हिंदी का पेट भरने के लिए माध्यम हो बस! इसलिएमन में कोई संकोच नहीं, कोई हीन सोच नहीं। वैसे मुझे पता है अधिकतर हिंदी प्रेमीसोच और संकोच से ऊपर उठे हुए होते हैं।
कल यों हीअपने गांव की साल भर सूखे रहने वाले तालाब के पास से गुजर रहा था। पर भैंसे हैं किसूखे तालाब की मिट्टी में लोट पोट हो ही अपने में स्वदेशी होने का बहम पाले रहतीहैं। उसमें मेंढक टर्रा रहे थे। एक मेंढक ने मुझे वहां से जाते देखा तो सूखे तालाबको फांद मेरे आगे खड़ा हो गया बोला,‘ और हिंदी प्रेमी! क्या हाल है?'
‘ठीक हूं।'
‘बैठो! कोई कविता-शविता हो जाए! बड़े दिनों से तुम्हारी कोई ताजा चोरी हुई कविता नहीं सुनी।' उसने कहा तोमुझे गुस्सा आ गया। हद है यार! हम मर गए चोरी के लिए हाथ पांव मारते- मारते और येमेंढक हैं कि․․․․․ आप ही कहो, चोरी के लिए क्याहाथ पैर नहीं मारने पड़ते? ऊपर से चोरी की कविता के कवि से जो उसके मन में आए सुनतेरहो। कवि जिंदा तो जिंदा, मरे भी अपनी कविता पर फणिधर की तरह कुंड़ी मारे बैठे रहतेहैं। अपनी कविता को हम जैसों का हाथ नहीं लगाने देते तो नहीं लगाने देते । इनकीकविता पर हाथ साफ करना महीनों भूखे शेर के मुंह में हाथ डालने से कम नहीं होता।मैं तो कहता हूं ये सब करना किसी मौलिक कविता को लिखने से सौ गुणा ज्यादा मेहनतका काम है । हम जैसे जब इनकी कविता की ओर बढ़ते ही हैं कि ये नरक से भी भौंकनाशुरू कर देते हैं। खैर, मैंने उसकी बात का कोई बुरा नहीं माना क्योंकि बुरा मानजाता तो हिंदी पखवाड़े की रात्रि पर कविता सुनाने जाने का सारा मजा किरकिरा होजाता।
सच कहूं, आजकल तो मेरेजैसों के मजे ही मजे हैं। हरिद्वार के पंडे की तरह एक मिनट की भी फुर्सत नहीं।सबेरे नौ बजे से हिंदी प्रेमी विभागों में पदिआना शुरू कर देता हूं कि सिलसिला रातको भी चलता रहता है। मैंने उसके द्वारा जले पर खुद ही गुलाब जल ड़लते कहा,‘ अभी तो हिंदी काउद्धार करने के लिए एक आयोजन में जा रहा हूं। पर तुम बिन पानी ही सूखे तालाब मेंटर्र -टर्र क्यों किए जा रहे हो?'
‘तो अपनी कवितायहीं सुना दो न! हम भी हिंदी पखवाड़ा मना रहे हैं।' उसने कहा औरहाइकू के नाम पर दो बाद टर्र- टर्र की।
‘पर सूखे तालाबमें? यार इन दिनों तोहिंदी की फटी किताबें भी तर हो जाती हैं और तुम हो कि․․․ क्या किसी विभाग ने तुम्हें टर्राने के लिएबजट नहीं भेजा?इन दिनोंतो हिंदी में ,टर्राने तोटर्राने, खुर्राने वालेभी साल भर के लिए पैसा इकट्ठा कर टाटा हुए जा रहे हैं,' मैंने कहा तोमेंढक बिन कुछ कहे सूखे तालाब में जा मरा, सिर झुकाए। चलो देश में किसी को तो सच सुननेपर शर्म आई।
चोरी कीकविताओं के असहनीय भार वाले थैले को कांधे पर उठाए मैं वहां से सीधा हिंदी पखवाड़ेके कवि आयोजन में। वहां देखा तो हैरानी हो गई! कवि गोष्ठी में कई साल पहले दिवंगतकवि अधिक तो दूसरे गिनती के ! हद है यार! मरने के बाद भी कवि गोष्ठी नहीं छूटी।आखिर मैंने एक को आयोजकों की नजर बचा किनारे ले जाते पूछ ही लिया,‘ बंधु ये क्या! अबतो चैन करते। अगर मरने के बाद भी हिंदी पखवाड़े की गोष्ठियों में यों ही आतेरहोगे तो हम तो जिंदा जी ही मर लिए। यही पंद्रह दिन ही तो होते हैं हिंदी प्रेमीहोने का अहसास करने के लिए। हमें मारना ही है तो लो हमारे गले में अंगूठा दे दो।दिवंगत हुए पितृ पक्ष में आते ही शोभा देते हैं। वे कवि हों या श्रोता! कब है तुम्हाराश्राद्ध?'
‘ मेरे श्राद्धमें क्या तुम ऐसी सेवा करोगे जैसी यहां हो रही है?इस पखवाड़े के कार्यक्रमों में आ तो हमएक बार फिर जिंदा हो उठते हैं। साल भर इस पखवाड़े का इंतजार रहता है और तुम कहतेहो कि․․․'अब समझा! मेरेदादा ने अपना श्राद्ध पितृ पक्ष के सबसे बाद वाले दिन करने को क्यों कहा? वे भी कभी कभारअपने को हिंदी हिमायती कहा करते थे।
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