लघुकथा शोर -रजनीकांत

वे दिन भी कितने अलौकिक होते थे। जब हम बच्चे गाँव में धमाचौकड़ी मचाते। दो महीनों की छुट्टियों में सभी बच्चे इकट्ठे होते। आमों के पेड़ पर आम खूब लगते। रसदार आम। पीले पीले आम ,हरे हरे आम। उन दिनों आम भी खूब लगते।मकान के सभी कमरे आमों से भरे होते।सभी बच्चे बनायन डाले बाल्टियों में रखे आम चूसते। बच्चे तो सभी के सांझे होते हैं। बड़े बुजुर्गों का यही विचार था । किसी भी आम के पेड़ से आम ले आओ। कोई बंधन न होता। शाम को एक चबूतरे पर सभी इकट्ठे होते। आरती करते। भजन गाते। बड़े बुजुर्ग ,औरतें इसमें शामिल हो जाते। बेहड़ा भरा - भरा लगता। मुहल्लें में लगभग सभी लोगो ने पशु रखे हुए थे । खूब दही -दूध होता।जिस घर में घुस जाते दूध बड़ा गिलास स्वागत करता। चाय कहाँ थी? सभी लोग तब चाय के स्थान पर लस्सी पीया करते थे।
इतने सारे बच्चे। शोर से बुजुर्ग बूढ़े तंग आ जाते।
-ओये। परे जाकर खेलो। मूओ। काम करने दो। इतना शोर।
अब परिदृश्य बदल गया है । कई वर्षों बाद गाँव आया हूँ। सब कुछ वही है । हमारे पांच बेहड़ों में से केवल दो बेहड़ों में ही लोग रहते हैं। शेष सभी घरों में ताले लग गये हैं। कुल मिलाकर पांच जन हैं।उनकी आपस में भी नहीं बनती। एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं। सभी के बच्चे कमाई करने परदेस चले गये हैं। पीछे बूढ़े और बूढ़ियाँ रह गये हैं। जो अपने अंतिम दिन गिन रहे हैं। और संतानों को कोस रहे हैं।
-हमने अपने माँ बाप को कौन सा सुख दिया था जो अब हमें सुख का सांस मिलेगा। सुख तो अपने कर्मों का होता है। भाई। किसी के कदमों की आहट का इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई आये और हमारे साथ बातें करे। यहाँ के लोग तो एक दूसरे के बैरी हैं। बच्चों के शोर सुनने को कान तरस जाते हैं। कहीं से कोई आये और गोदी में घुस जाये।हम उन्हें पुचकारें। उनसे तोतली तोतली बातें करें। क्या करें ?बस , पुराने दिनों को चेते(याद ) करते रहते हैं। ऐसे अपने जीवन के दिन काट रहे हैं ,मुन्नुआ। जब बच्चे पूरे मुहल्ले को सिर पर उठा लेंगे ? उसी पल का इंतज़ार कर रहे हैं। न जाने वह पल कब आएगा ?
हरिया ताऊ ने अपना दिल मेरे आगे खोल कर रख दिया है ।मैंने देखा उनकी आँखों में आंसू हैं।
-रजनीकांत

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John F. Kennedy
(1917-1963)
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