लघुकथा -काले चश्मे वाली ---- रजनीकांत'

वह अक्सर मुझे कॉलेज जाते हुए बस स्टैंड पर बस की प्रतीक्षा करती हुई मिलती।मैंने नोट किया उसकी आँखों पर प्राय: काला चश्मा चढ़ा होता। बह सूट से मैच करते हुए जूते पहनती। हाथ में उसी से मैच करता पर्स पकड़े होती। मैं ही क्यों ,कोई भी उसकी ओर आकर्षित हो जाता । यह शायद पहला प्रथम दृष्टया प्रेम था। हो सकता है कि एक तरफा प्रेम रहा हो।उसकी भाव भंगिमाएं बड़ी आकर्षित होती। क्यों मैं उसकी ओर खींचता चला गया। मुझे इसका आभास तक नहीं हुआ। मैं भी पांच फुट का गठीला युवक था। यूँ कह लो यौवन कि कश्ती में सवार था। उसे मैं अक्सर बस स्टैंड पर प्रतीक्षा करते हुए पाता।एक दिन वह मेरे साथ वाली सीट पर आकर बैठ गई। बात मैंने ही शुरू की
-मैडम कहाँ तक जाएँगी आप ?
-जी सुभानपुर। जैसे किसी ने मेरे कानों में शहद घोल दिया था।
-अरे मैं भी तो सुभानपुर ही जा रहा हूँ। मैंने दो टिकटें ले ली!तभी से जान पहचान हुई। और मैत्री का संबंध स्थापित हो गया। उसने मुझे बताया कि वह महिला महा -विद्यालय में कला स्नातक कर रही है। अक्सर हम दोनों मिलने लगे। प्रेम परवान चढ़ता गया। प्रेम का छोटा सा पौधा अब एक वृक्ष का .रूप ले चुका था।प्रेम पत्रों ,छापे छल्लों का आदान -प्रदान होने लगा। हम बाहर रेस्तरां में मिलने लगे। काले चश्मे का रहस्य अभी भी बना हुआ था। उसने मुझे बताया कि उसके पिताश्री आर्मी में ऊँचे पद पर हैं। और वे जाति बंधन को नहीं मानते। बिलकुल खुले दिल के हैं। मेरा स्नात --कोत्तर का अंतिम वर्ष था।पढ़ने में किसी से कम न था। मैंने एक दिन उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा। वह कई दिनों से इसे टालती आ रही थी। मैं भी कहाँ मानने वाला था। उसे भी मैंने अल्टीमेटम दे दिया। इस महीने की15 तारीख तक अगर तुम्हारा जवाब नहीं आया। तो मैं तुमसे कभी भी नहीं पूछूंगा। 15 तारीख भी निकल गई। अब वह पिछले दो हफ्तों से गायब थी। मैं उसकी प्रतीक्षा में घंटो बस स्टैंड पर खड़ा रहता।उसका कहीं अता - पता न था। तब उस समय यह मोबाइल कहाँ थे? कोई संपर्क का साधन तक न था। एक दिन मैं विचारनिमग्न बस स्टेण्ड पर बस की प्रतीक्षा कर रहा था। एक छोटा सा लड़का मुझे एक रुक्का नुमा एक पत्र पकड़ा गया। मैंने पत्र खोला पढ़ने लगा -
रतन जी। पता नहीं आप मुझे क्यों अच्छे लगने लगे। आप से मैं मन ही मन प्रेम करने लगी । मुझे आप अन्य युवकों से हटके ,एक दम अलग लगे। मेरी हिम्मत नही पड़ी कि मैं अपने पिता जी को आपके प्रस्ताव के बारे में बता पाती ।पता नहीं क्यों में ऐसा नही कर पाई। मैं एक सच्ची पक्की इंसान हूँ। किसी को मैं अँधेरे में रखना नहीं चाहती हूँ ! आपको मैं बता दूं कि मेरी बाईं आँख पत्थर की है। मैंने बहुत प्रयत्न किया कि आपको यह राज़ बता दूं। पर न जाने क्यों , मैं यह साहस जुटा नहीं पाई।मुझे आपने अपने हृदय में जगह दी।आपका बहुत बहुत धन्यवाद। आपको कोई सुंदर कन्या मिल जायेगी। कोई अछा रिश्ता देखकर आप शादी कर लेना। मुझे एक बुरा सपना समझ कर भुला देना। आपसे यही प्रार्थना है बस। मुझ पर जैसे बज्रपात हुआ था।आँखों के आगे अँधेरा छा गया था। मुझे पता चला वह शहर को छोड़ कर कहीं और चल दी थी। इस घटना के इतने वर्षों बाद , पता नहीं क्यों वही काले चश्मे वाली अब भी वह गाहे -बगाहे मेरे मानसपटल पर दस्तक अवश्य देती रहती है।ऐसे सच्चे पक्के इंसान आजकल मिल पाएंगे ?जेहन में प्रश्न उठता अवश्य है।

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Friendships begin with liking or gratitude — roots that can be pulled up.
George Eliot
(1819-1880)
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