लफ्ज़
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मैं श्वेता मिश्र एक फैशन
डिजाईनर हूँ ..मैं पिछले कई वर्षों तक़रीबन ८-९
साल से भारत से बाहर हूँ और अब तक कई देशों में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका
है इन दिनों मैं नाईजीरिया में रह रही हूँ लेखन में रूचि होने के कारण लिखती
रहती हूँ कई पत्रिकाओं में मेरे लेख एवं कवितायेँ छप चुकी हैं और छपती रहती हैं | मेरा विश्वास है कि शब्द
वो खुश्बू है जो अपनी मोहपाश में बांध लेते हैं और भावनाओं का साथ पाकर मन उपवन
महका जाते हैं ... लेखन शौक़ मात्र है परन्तु महसूस होता है कि किसी साधना से कम
नही .. !!
हस्ते मुस्कुराते इठलाते
जलते बुझते जगमगाते
लफ्ज़ लफ्ज़ कहलाते हैं !
किरदारों में ढलते
खुशियों और उदासियों की
जलते बुझते जगमगाते
लफ्ज़ लफ्ज़ कहलाते हैं !
किरदारों में ढलते
खुशियों और उदासियों की
चादर से निकलते
बर्फ में जमते
बर्फ में जमते
धूप में पिघलते
पतझड के पीले पत्तों से
एक उम्र ये लफ्ज़ भी जी जाते हैं !!
एक उम्र ये लफ्ज़ भी जी जाते हैं !!
चिनार
झरोखे से झांकता चिनार
झुक कर निहारता
पत्तों की सुर्ख रंगीनियाँ
आँखों की लालिमा बताता
कभी हवाओं के संग उड़ आता
कभी बिछ के कितनी यादों को जगाता
और कभी आँचल की तरह आ घेरता
पतझड़ में गिर के गालो पर बोसे दे जाता
वो चिनार जो दहलीज़ पर खड़ा है
अतीत से निकल आज में चल पड़ा है
सुर्ख होती पत्तियों की झंकार साज़ छेड़ रही है
वीरानियों में ठूंठ होते पेड़ सुफेदी की बाट जोह रही है!!
झुक कर निहारता
पत्तों की सुर्ख रंगीनियाँ
आँखों की लालिमा बताता
कभी हवाओं के संग उड़ आता
कभी बिछ के कितनी यादों को जगाता
और कभी आँचल की तरह आ घेरता
पतझड़ में गिर के गालो पर बोसे दे जाता
वो चिनार जो दहलीज़ पर खड़ा है
अतीत से निकल आज में चल पड़ा है
सुर्ख होती पत्तियों की झंकार साज़ छेड़ रही है
वीरानियों में ठूंठ होते पेड़ सुफेदी की बाट जोह रही है!!
मैं
मैं बोनसाई
धरती की कोख से गयी जाई
ज़मीन से उखाड़ गमले में गयी बसाई
धरती की कोख से गयी जाई
ज़मीन से उखाड़ गमले में गयी बसाई
शाखों को कटवाई
बंद कमरे की झीनी धूप पाई
दर्द को भी सिकन नही आई
बंद कमरे की झीनी धूप पाई
दर्द को भी सिकन नही आई
सिंचन को थोडा जल पाई
खिल के पत्तों ने मुस्कान अपनी जताई
कभी धूप कभी छावं नियति अपनी पाई
खिल के पत्तों ने मुस्कान अपनी जताई
कभी धूप कभी छावं नियति अपनी पाई
मैं बोनसाई
वजूद पेड़ का पौधा बन सिमट आई
सुखन औरों में अपनी मुस्कुराहट पाई
वजूद पेड़ का पौधा बन सिमट आई
सुखन औरों में अपनी मुस्कुराहट पाई
एकाकी मन
जब भी होता एकाकी मन
चुपके से तुम्हारी बातें
मन के कोने से निकल कर
मुखातिब हो आती हैं
'अकेली रहोगी'बात इतनी सी
मन में तूफ़ान मचा जाती है
एक एक हार्फ़ की टूटी किरचें
मन को लहूलुहान कर जाती हैं
आँगन की मिटटी अब भी गीली होगी
मन के किसी कोने में आस जगा जाती हैं
अनभिज्ञं नही मन मेरा भी
तुझे भूलने की चाह में
मुझे तिल-तिल मिटा जाती हैं |चुपके से तुम्हारी बातें
मन के कोने से निकल कर
मुखातिब हो आती हैं
'अकेली रहोगी'बात इतनी सी
मन में तूफ़ान मचा जाती है
एक एक हार्फ़ की टूटी किरचें
मन को लहूलुहान कर जाती हैं
आँगन की मिटटी अब भी गीली होगी
मन के किसी कोने में आस जगा जाती हैं
अनभिज्ञं नही मन मेरा भी
तुझे भूलने की चाह में
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