रिश्ते ------ प्रकाश बदल

पिता जी के जाने के साथ-साथ मर गए कुछ रिश्ते भी (लेख की लम्बाई से आप न पढ़ने का मन भी बना सकते है) पिता जी के न रहने पर हुए अनुभवों को साझा करनेकी मंशा से लिखा है, न कि किसी को ठेस पहुंचाने की मन्शा है)

30 मार्च 2014 को जब पिता जी के अचानक चले जाने के बाद मैं अधिक देर गांव में नहीं रुका । मुझे सांत्वना देने आए खोखले लोग बिल्कुल भी पसंद नहीं। बहुत सी बातें बनीं, ‘देखो.. जी कैसा बेटा है.. अभी चौथा ही दिन है.. अभी तो मिलने वाले आएंगे.. पूछेंगे.. कि बड़ा बेटा नहीं है.. इतनी जल्दी चला गया.. थू..थू होगी सब में..’  वगैरह-बगैरह... खैर.... मुझे कब क्या करना है,
इतनी सी समझ तो मैंने अब अपना ली थी। मैं शिमला लौट आया.. इस उम्मीद
के साथ कि काश एक महीने तक मुझसे मिलने कम से कम
औपचारिकता करने वाले तो न आएं.. लेकिन बहुत से लोग मेरे न चाहते हुए
भी आए.. खासकर शिमला में मेरे सरकारी आवास पर...
कुछेक ऐसे भी थे जो दिल से मेरे साथ थे.. गहरी संवेदनाओं
के साथ.. उदाहरण के तौर पर दुर्गा भाई, गुड्डी भाभी और
उनका एक सुपुत्र बिनू.. दुर्गा भाई.. मेरा ऐसा मित्र है.. जो किसी बड़े भाई
से भी अधिक है.. पिता जी की मृत्यू
की खबर सुनकर पूरे परिवार सहित मेरे साथ गांव चलने के लिए एकदम
तैयार हो गए, साथ गए भी और साथ ही लौटे.. दुर्गा भाई जैसे
लोग अब कहां मिलते हैं..सबके सुख-दुख में हमेशा साथ.. एकदम तैयार...
मानो बिल्कुल फ्री हों.
खैर.... मैंने अक्सर यह महसूस किया है कि ज्यों-ज्यों हम आधुनिक और अधिक
पढ़े-लिखे कह्लाने लगे हैं, त्यों-त्यों संवेदनाओं को व्यक्त करना भी एक
औपचारिकता मान बैठे हैं। जब मैं बहुत
छोटा था तो देखता था कि किसी की मौत हो जाने पर दूर-दूर से
रिश्तेदार घर आते थे, और कई दिन उसी घर में रहते, जहां से कोई
विदा हो कर गया है। पीड़ित परिवार को सांत्वना और हौसला देते कि जो हुआ
सो ईश्वर कृपा थी, लेकिन इस दुख की बेला में सब
पीड़ित परिवार के साथ है। वहां से सीधा आज के समय में
पहुंच जाता हूँ, तो पाता हूँ कि शिमला के कनलोग स्थित अत्याधुनिक शमशानघाट में
किसी की मौत पर आना और आकर लौट जाना एक वैल मैनर्ड
(well mannered) औपचारिकता हो गई है। मोबाईल पर एक दूसरे को फोन करके
पूछना कि डैड बॉडी कब तक शमशान घाट पहुंच जाएगी। उस
हिसाब से लकड़ी डालने के लिए सब आते हैं। और कपाल
क्रिया की प्रतीक्षा में लोग कई बार तो मोबाईल पर खूब बतियाते
देखे जाते हैं। कपाल क्रिया खत्म होते ही शोक संतप्त परिवार विदाई के
लिए हाथ जोड़ कर शमशान घाट के विदाई द्वार पर पंक्तिबद्ध खड़ा दिखाई देता है। और
हम भी हाथ जोड़ कर विदा लेते हैं। थोड़ा बहुत
भावुकता तो झलकती है, लेकिन नाटक अधिक । खैर.. मुझे
अपनी मां की विदाई का वो दिन याद आता है, जहां लोग इस
तरह कतारबद्ध नज़र नहीं आए थे.. मुझे और मेरी बहन
को गोद में उठाए, पिता जी को दिल से हौसला देने वाले लोगों ने एक
महीना आना-जाना रखा.. खैर.. सब कुछ बदल रहा है.. सो संवेदनाएं
भी वहाटस ऐप और फेसबुक पर ही प्रकट
की जाए तो क्या बुरा है..
पिता जी के जाने के लगभग एक साल बाद मेरे मन में
आया कि पिछली बार होली पर पिता जी थे.. बेशक
रिश्ते उनसे वैसे ही चले आ रहे थे... बिल्कुल बेरंग.. लेकिन
जीवन में कई रंग निखर-निखर आते थे... लेकिन इस साल जब
पिता जी नहीं हैं.. तो ब्लैक ऐंड व्हाईट नज़र आने लगा है..
पिछली होली पर घर में बच गए रंगों की थैलियों से
रंग बाहर आकर आत्म सपर्पण कर रहे थे.. लाल,पीला,
नीला सबने एक बेरंग लिबास ओढ़ लिया था.. और फिर मेरे कानों में
पिता जी की वो आवाज़ें गूंज
रहीं थी.... जो कभी कभी मुझसे
गुस्से में वे कह देते थे... ‘ मैं चला जाऊंगा तब पता चलेगा कि बाप के न होने पर धूप
भी साथ छोड़ देती है... मेरे पिता जी गए थे..
तो मुझे भी तभी अहसास हुआ था..’ और मैं मन
ही मन अपने अहम में मन ही मन खुद से
ही फुसफुसाता रहा.. देख लेंगे तब भी क्या होगा.. सब के
पिता साथ थोड़े ही रहते हैं.. उम्र भर.. ! इतने में पिता जी के
पड़ोसी रूपलाल अंकल ने बताया कि जब
पिता जी आखिरी बार मुझसे बिछुड़ कर शिमला से घर आए थे..
तो खुश हो कर बता रहे थे कि अब मैं शिमला में ही रहूँगा... बादल के
साथ.. हमेशा के लिए.. दवा भी टाईम से खाऊँगा... वहां इदु मुझे
सही दवा देकर ठीक कर देगी.... सचमुच.. अब
जहां भी जाता हूँ.. पिता जी खड़े हो जाते हैं.. बाथरूम
में....शौचालय में... बैडरूम में...गाड़ी में बैठते समय..बुखार में मेरा सिर
दबाते.. मेरे लिए दवा लाते दिखते हैं.. पिता जी.. और मैं उनके साथ होकर
भी उनसे बहुत दूर खड़ा नज़र आता हूँ... यह कहता हुआ कि पिता साथ
थोड़े ही रहते हैं उम्र भर.. और पिता जी हंसते है मूझे
बच्चा समझ कर...... मैं और पिता जी पिछले लगभग 15 वर्षों से बैचारिक
दूरियों के चलते दो अलग-अलद दिशाओं में थे.. लेकिन लगभग पिछले 8-9 सालों से, जब
भी बीमार हो जाते, तो मेरे पास चले आते थे...फोन करके...
‘बेटा तबीयत खराब है.. तुम्हारे पास आना है.. चैक अप करवा दोगे..??’
मैं भी रूखी भाषा में कहता ‘ आ जाइये.. आ जाइये...’ खैर..
धूम्रपान ने पिता जी के फेफड़े और नसों को बेहद डैमेज कर दिया था.. और
मुझे खबर थी कि कभी भी कुछ हो सकता है...
लेकिन पिता जी अपनी अड़ी से पीछे
भला कहां हटते थे।
खैर....... आखिर हुआ वैसा ही जैसा मैं सोचता रहता था.. अशोक अंकल
का फोन आया.. ‘बेटा जल्दी घर आ जाओ.. भाई साहब
की तबीयत ज़्यादा खराब हो गई है.. मैंने तुरंत इंदु (पत्नि )
को फोन लगाया.. चलो... जल्दी जाना है.. गांव..
पिता जी नहीं रहे..’ इंदु ने हैरानी जताते हुए
मुझसे कहा.. ‘कैसी बाते कर रहे हो.. अभी-
अभी मेरी गांव बात हुई
पता चला कि पिता जी नहा रहे हैं.. खुद शेव की.. खाना खुद
खाया... और नए कपड़े भी पहने...’ इंदु की बातें सुनकर फिर
शंका हुई.. अशोक अंकल को फोन घुमाया.. 'अंकल जी ! मुझे कनफर्म
बता दो.. जो भी है.... ‘ ‘बेटा! बादल, अब क्या बोलूं कन्फर्म
ही समझो.. बस आ जाओ, तुरंत !’ फिर यकीन पर मोहर
लगी और.. वो दिन कंफर्म हो गया, जिसके अक्सर खाब आते रहते
और ... सोते जागते.. कि पिता जी सेब के बागीचे में गिरे पड़े
मिले. कभी ऐसा स्वप्न भी हुआ कि बाईपास के समय
जा बसे.. आदि आदि.. खैर... मन बड़ा किया.. मेरी गाड़ी बहुत
नीची थी.. बहुत से दोस्तों से, जिनके पास
ऊंची-ऊँची गाड़ियां थी.. मांगी...
सभी ने बहुत से बहाने लगाए.. कुछ लोगों ने तो साफ
मना भी कर दिया.. निप्पी भाई को फोन लगाया.. ‘तेबे दाद !’.. मैं
निप्पी भाई को ऐसे ही बुलाता हूँ... तेबे दाद ! का अर्थ कोटगढ
की बोली में और बड़े भाई ? है... निप्पी भाई
की आवाज़... ‘ ठीक आ. ! “ मैंने
बोला आपकी स्कॉर्पियो चाहिए.. निप्पी भाई बोले...
‘नहीं मिल सकती.... मुझे जाना है गांव.. मैंने
बोला प्लीज़ निप्पी भाई.. दे दो.. निप्पी भाई ने साफ
मना कर दिया.. ‘अन्त में मुझे कहना ही पड़ गया.. ‘ दरअसल मुझे गांव
जाना है.. सड़क खराब है.. और मेरी गाड़ी बहुत
नीची है.. मेरे पिता जी की डैथ
हो गई. है.. निप्पी भाई.. ‘ तू है कहां अभी..’ ऐसा कर मेरे
क्वार्टर जा.. वहां लटकी है चाबी और गाड़ी ले
जा..” इसीलिए निप्पी भाई... को छोड़ने का मन
नहीं करता.. हलांकि निप्पी भाई ने मुझसे कई बार अलग होने
की कोशिश भी की.. लेकिन उनके अंदर छिपा एक
ज़िंदादिल इंसान मुझे उन्हें छोड़ने की इजाज़त नहीं देता।
खैर.. बहुत कुछ हुआ इसके बाद.. दुर्गा भाई... इसके गवाह रहे.. मैं चौथे
ही दिन शुद्धि के बाद शिमला लौट आया.. मैंने खुद फेसबुक पर अपने
स्टेटस में मित्रों को कहा था कि मेरे पास न आएँ.. क्योंकि गांव के लिए रास्ता बहुत
खराब है.. मित्रों ने मेरी सलाह मानी भी.. और
सच कहूं तो मुझे किसी के आने की उम्मीद
भी कम ही थी.. जिनके आने
की उम्मीद थी.. जिनका मैं इंतज़ार करता रहा..
वो मेरे वही तीन..चार मित्र थे.. जो निसंदेह.. शिमला में मेरे
निवास स्थान पर आए.. लेकिन ऐसा रंग मेरी स्मृतियों में पोत गए.. कि सब
कुछ काला-काला अंधेरा अंधेरा ही दिख रहा है.. एक मित्र तो मेरे ऐसे थे..
जिनसे उंगली पकड़ कर चलना सीखा है.. प्रोत्साहन
उन्हीं का रहा.. मेरे गांव में उनकी एक
सरकारी विभाग में पोस्टिंग थी और रचनाकार संगम और सर्जक
जैसी संस्था से उन्होंने मुझे जोड़ा और जीवन के अनेक मूल्य
सिखाए.. और मैंने सीखे भी.. एक कवि मित्र जिनके घर पर
शिमला आते समय भी 15 दिन रुकता और जाते समय
भी इतने ही दिन.. मतलब इन कवि मित्र का घर मेरा दूसरा घर
बना हुआ था.. वो मेरे बचपने के दिन थे और उनके जवानी के दिन शायद..
वैसे उम्र में हम दोनों में अधिक फर्क नहीं, सात या आठ साल
का ही अंतर होगा.. खैर... उन दिनों कवि मित्र की सोच
बिल्कुल फक्क्ड़ थी.. कहते थे बादल मिलते जुलते रहना चाहिए..
दुनियादारी में क्या रखा है.. सब ऐसे ही चलता है.. और आज
कवि मित्र से मिलने उनके घर जाते तो कई बहाने हमें टाल देने के तैयार होते थे.. फिर
भी मुझ जैसा ढीठ भला कहां मानता है.. मैं सपरिवार घुसपैठ
कर ही देता था। फिर तो कवि मित्र
की सारी फिलॉसिफी अलग
ही थी.. कवि मित्र बचे हुए दिखे तो सिर्फ
अपनी कविता में.. ठीक उसी तरह जैसे एक
अभिनेता अभिनय करते हुए बिल्कुल अलग नज़र आता है चटकदार.. और
करीब से देखो तो एकदम फीका.. नीरस.... इसमें
बुराई भी कोई नहीं.. प्रैक्टिकल जीवन
जीना तो इसी को कहते हैं.. परंतु अपनेपन का मेरा भ्रम
अभी तक टूटा नहीं था..
आपको वापस ले चलता हूँ कि इन मित्रों की मुझे
प्रतीक्षा थी, कि मैं इनसे अपने दुख शेयर करूंगा...
बाकि की दुनिया जाए भाड़ में.. सब कुछ बताऊंगा.. सब राज़ खोलूंगा.. जो बातें
पिता जी के साथ पूरी न हो सकीं उनसे करूंगा।
बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था. पिता जी..के साथ पिछले 14-15 सालों से
फीके संबंध...... एक लम्बी कथा छिपी है
इसमें..... संक्षेप में कहूं.. तो पिता जी ने मुझ पर जाते जाते तक
भी भरोसा नहीं किया और बहुत से झूठ मुझसे बोलते रहे..
उनके मन में मेरे प्रति क्या रहा होगा.... वो जाने.. मुझे इतना ही याद है
वे जब भी गंभीर रूप से बीमार रहे.. तो मेरे पास
आ गए.. और जब ठीक हो कर गए तो गांव में अपने दूसरे परिवार के पास
चले गए.. ( मेरी जन्म दायिनी मां मुझे 8 साल
की उम्र में छोड़ गई थी और 4 साल की एक
छोटी बहन ईना भी) जहां पर मां के चले जाने के बाद एक
और मां रहती है और उनके दो बच्चे एक बेटा-बहु और एक
बेटी। खैर.. पिता जी का इलाज करवाना तो एक बेटे का फर्ज़
होता ही है, वो तो मुझे निभाना ही था. मैंने थोड़ा बहुत
निभाना भी चाहा.. लेकिन पूरी तरह निभाने में असमर्थ रहा..
मेरी ही अपनी शायद
ईगो रही होगी.. जिसे पिता जी के सामने समर्पित
कर देता तो शायद पिता जी की और सेवा कर पाता. लेकिन मुझे
अच्छी तरह से याद है कि मैंने कई बार पिता जी से
पटरी बिठानी चाही परन्तु वो अलग
ही चले। खैर! यही बातें कह कर मैं इन मित्रों से अपना दुख
हल्का करना चाहता था.. लेकिन वो मुझे सुनने नहीं, खुद
की कहने आए थे...उनका मत था कि जो चला गया उसके खिलाफ
कहना उचित नहीं... वरिष्ठ मित्र ( जो खुद एक पिता हैं) तो बात-बात पर
आग-बबूला हो रहे थे.... ‘बादल! हम तुम्हारे पास संवेदनाएं व्यक्त करने आए हैं..
तुम्हारे पिता जी की निंदा सुनने नहीं।
इसी दिन के लिए पाल-पोस कर बड़ा किया था तुम्हें कि अपने
पिता की निंदा करो।’ बहस शुरू हो गई और मित्र मुझ पर
हावी हो रहे थे.. उनके हाव-भाव कह रहे थे कि संवेदनाओं
की औपचारिकता पूरी कर तुरंत लौट जाने के मन से आए हैं।
अपने दिल की बात मैं उनसे कहूं तो गुनाह हो जाए। और उनका एक तर्क
एक ये भी था कि मृत्यू के बाद किसी व्यक्ति के खिलाफ
कहना भी पाप है। लेकिन मैंने तो सिर्फ ये साझा करना चाहा कि मुझे
पिता जी के जाने पर सिर्फ इतना दुख है कि पिता जी मेरे
खिलाफ ही रहे..और बाप-बेटे की बन नहीं पाई..
ये भी उनकी नज़र में गुनाह ! इतना सुनते
ही कवि मित्र ने कहा, अच्छा छोड़ो मैं तुम्हें एक कविता सुनाता हूँ.
पिता की मृत्यू पर लिखी ताज़ा कविता.. मैंने कहा..
मेरा कविता सुनने का मन नहीं है.. मित्र इतना सुनते ही उठ
खड़े हुए.... ‘मैं चला.. मुझे यहां अच्छा नहीं लग रहा.. ऐसा थोड़े
होता है.. पीछे से सभी उठ खड़े हुए.. और मैंने तो पहले
कह ही दिया था कि अगर मेरा दुख नहीं सुनना है तो आने
की ज़रूरत भी क्या थी.. मगर
मेरी पत्नि इंदु मित्रों को रोकते-रोकते रो पड़ी थी..
प्लीज़ रुक जाइये.. खाना तो खा लीजिए.. लेकिन मित्र कविता..
सुनाना चाहते थे.. या अपनी फिलासिफी लादना चाहते थे..
नहीं तो घर छोड़कर जाना चाहते थे.. न आंसुओं
की चली न मेरे उस तर्क की कि मैं उनके बेटे
की तरह हूँ, अगर वो अपने बेटे से
भी इसी तरह उलझ जाते तो अपना घर भी छोड़
जाते..? उनके पास उत्तर नहीं था.. इंदु को फुसलाते हुए मित्र एक-एक
करके घर से बाहर निकल गए.. और बोले कि हम सिगरेट पीकर
अभी आते हैं.. लेकिन लौट कर आया तो. सिर्फ मोबाईल पर एक मित्र
का एस एम एस.. ‘बाद्ल! हम जा रहे हैं.... तुम अपनी जगह
सही हो.. मैं मज़बूर हूं, इन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता,
इसलिए जा रहा हूँ..फिर आऊंगा.....’ पिता जी के साथ-साथ कुछ
रिश्तों की भी अकस्मात मौत हो गई.... इतने बड़े शोक के बाद
मैं इस बार होली कैसे मनाता।

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Excess on occasion is exhilarating. It prevents moderation from acquiring the deadening effect of a habit.
W. Somerset Maugham
(1874-1965)
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