अपनी कोठी में कुछ काम कराने के लिए बाबू रामदयाल पास ही के चौराहे से एक मजदूर को पकड़ लाए। वह एक लुंगी और पुराने, जगह-जगह से पैबंद कुरते में था।
बाबू रामदयाल उसे लेकर पैदल ही आ रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘‘क्या नाम है तेरा?’’‘‘जी बाबू.... सुखी राम।’’
बाबू रामदयाल मन-ही-मन मुस्कुराए, उसके नाम पर शायद।
रास्ते में एक जगह मस्जिद के सामने खड़े होकर सुखी राम माथा टेकने की मुद्रा में खड़ा हो गया।
बाबू रामदयाल को आश्चर्य हुआ और वे दूरदर्शनी डायलाग बोलने लगे --
‘‘क्यों बे, तू मुसलमान है क्या?’’
‘‘नहीं-नहीं बाबू... हम तो हिन्दू हैं।’’
‘‘तो फिर मस्जिद के सामने सर काहे नंवा रहा है?’’
सुखी राम सहजभाव से कहने लगा ---
‘‘हम तो अनपढ़-गंवार हैं बाबू जी। हमार खातिर का मस्जिद और का मंदिर, सब एक ही हैं। इनका भेद तो आप जैसे पढ़े-लिखे लोगन को ही ज्यादा पता है।’’
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