लघुकथा : बसन्त की आशा

 

काका रामशरण के पिताश्री अनपढ़ खेतिहर थे।उनकी इस अयोग्यता ने एक मिशाल गढ़ दी थी,उन्होंने अपने बेटे को गाँव का सबसे ज्यादा पढा -लिखा दिया।रामशरण के लिए माता-पिता ही भगवान थे। शादीशुदा रामशरण नौकरी की तलाश मे जब शहर पहुंचा तो उसका सिर चकरा गया।अपने भी अनजान और पराये लग रहे थे। बेरोजगारी का भूत डरा रहा था।शो रुम के कपड़ों के डिस्प्ले को देखता तो खड़ा होकर निहारता और मन ही मन सोचता काश मैं अपने मां बाप और बच्चे के लिए खरीद पाता। 

पंचवर्षीय बेरोजगारी के बाद उसने अपने पिता के हर सपने को सजाया,बच्चों की ऊंची तालिम के लिए खुद टूटता रहा परन्तु किसी को भनक नहीं लगने दिया ।

 

बेटी की डोली उठी बहू की डोली रामशरण के घर भी आई। बहू को परिवार मे मान-सम्मान और ऊंचा दर्जा मिला परन्तु यह सम्मान बहू के मां बाप को नहीं भाया उन्होंने ने बेटी को ससुरालजनों का विरोधी बना दिया ताकि उसके मां बाप अपने आधा दर्जन बच्चों का घर बसा सके ।

दिमाग से पैदल बेटी ने मां बाप का साथ दिया, पति का टार्चर खुद और उसके मां बाप ने किया। रामशरण का बेटा  ध्यानदत्त सास-ससुर और पत्नी के शरणागत  हो गया ताकि दहेज के जुर्म मे उसके मां- बाप,भाई-बहन को सलाखों के पीछे ना जाना । बहू और उसके मा -बाप की साजिश ने बूढ़े रामशरण और उनकी पत्नी को आंसू से रोटी गीला करने को मजबूर कर दिया ।

बूढ़े रामशरण बूढी सगुनी उम्मीद मे जी रहे थे कि उनकी खुरापाती बहू का मोहभंग एक दिन होगा। बहू लालची मां- बाप की चौखट का त्याग कर अपने गृहस्थ जीवन को खुशहाल बनायेगी। सास ससुर की पतझड़ सी जिन्दगी को बसन्त सरीखे सजायेगी  

लम्बी तपस्या के बाद बूढ़े रामशरण बूढी सगुनी विश्वास यकीन मे तो बदला,बसन्त की आशा अलंकृत हुई । बहू के मां -बाप समाज की नजरों मे बहुत नीचे तक गये थे परन्तु  रामशरण ने हाथ बढ़ा दिया था।

 

डां नन्दलाल भारती

 

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I'm always rather nervous about how you talk about women who are active in politics, whether they want to be talked about as women or as politicians.
John F. Kennedy
(1917-1963)
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