विनम्रता और दया

 सत्संग के लिए आने वालों से संत कबीर अकसर कहा करते थे कि अपने काम को पूरी लगन से करते हुए भगवान का चिंतन करते रहना चाहिए। एक दिन एक श्रद्धालु कबीर के दर्शन के लिए आया। उसने उनसे कहा, ‘बाबा आप तो दिन भर बैठे करघे पर कपड़ा बुनते रहते हैं। फिर भला भगवान का ध्यान-स्मरण कब कर लेते हैं?’ कबीर उसे अपने साथ लेकर गंगा तट पर पहुंचे। एक महिला गंगाजल से भरा गागर अपने सिर पर रखे लौट रही थी। गागर को उसने पूरी तरह छोड़ रखा था और मुंह से गंगा की महिमा के गीत गुनगुना रही थी। लेकिन गागर से एक बूंद भी गंगाजल नहीं छलक रहा था। कबीर उसकी तरफ इशारा करते हुए बोले, इस महिला को ध्यान से देखो। यह मुंह से गंगा का- भगवान का स्मरण कर रही है और इसे यह भी पूरा ध्यान है कि गागर गिर न पाए। दोनों काम एक साथ साधना इस महिला से सीखो। मैं भी हाथों से करघा चलाता हूं, और ऐसा करते हुए मुख से राम नाम जपता रहता हूं। परमात्मा का नाम तो हर क्षण भक्त के हृदय व मन में रमते रहना चाहिए।’ कबीर के इस उपदेश से जिज्ञासु की समस्या का समाधान हो गया। संत कबीर धर्म के नाम पर पनपने वाले आडंबर के घनघोर विरोधी थे। उन्होंने अपनी साखियों में अभिमान में अंधे, ढोंगी-नशेड़ी साधुओं पर काफी कठोर लहजे में प्रहार किए थे। अपने को चमत्कारी साधु या गुरु बताने वाले अहंकारी साधुओं पर उन्होंने लिखा, घर-घर मंतर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना/ गुरु सहित शिष्य सब बूड़ें, अंत काल पछताना। कबीरदास का मत था कि वही साधु-महात्मा सच्चा गुरु कहलाने का अधिकारी है, जो स्वयं सदाचारी, संयमी और ज्ञानी है। जिसके मन में विनम्रता और दया का वास नहीं है, वह आखिर गुरु कैसे हो सकता है।

2 comments:

  1. आज के गुरुओं में विनम्रता कि बजाय दंभ ज्यादा दिखता है, पर भी भी अच्छे लोग हैं दुनिया में अभी भी..जो संयम, विवेक, विनम्रता को अपना आभूसण मानते हैं !!

    ReplyDelete

We should regret our mistakes and learn from them, but never carry them forward into the future with us.
Lucy Maud Montgomery
(1874-1942)
Discuss