रतन चंद 'रत्नेश' की लघुकथा --दो टके की नौकरी

बाबू हरकिशन लाल झंडे-बैनरों से सजी-धजी अपनी कार से उतरे। वे अभी-अभी चुनाव-प्रचार से लौटे हैं। अंततः बड़ी मेहनत-मशक्कत के बाद वे इस बार पार्टी का टिकट हासिल करने में कामयाब हो पाए हैं।
अपने आलीशान बंगले में प्रवेश करते ही वे चिल्लाये---
‘‘कहाँ है रामकिशन? जल्दी से भेजो उसे मेरे पास।’’
ढूँढकर उनके युवा बेटे को हाजिर किया गया।
‘‘कहाँ रहते हैं जनाब, दिखते ही नहीं इन दिनों ?’’ उन्होंने बेटे से पूछा।
‘‘पिताजी, फाइनल की परीक्षा सर पर है, उसी में जुटा हूँ । साथ ही इस बार आई.ए.एस. में बैठने की तैयारी भी कर रहा हूँ।’’
बेटे की बात सुनकार बाबू हरकिशन लाल भन्नाए---
‘‘लो सुनो इसकी बात। चुनाव सामने है और इसे पढ़ाई की पड़ी है। ये नहीं कि बाप का हाथ बँटाए। घर में घुसा किताबें चाट रहा है कमबख्त। कोई समझाए इसे।......... अरे भई मेरे चुनाव-प्रचार में जोर-शोर से जुट जा। मैं जीत गया तो तुझे दो टके की नौकरी के लिए इस तरह किताबों में मगज खपाने की जरूरत नहीं पड़ेगी...... समझे।’’

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A fearful man is always hearing things.
Sophocles
(496 BC-406 BC)
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