नो कमेंट्स प्लीज!


 जो नेता जी कल तक अखबार वालों के पीछे जलेबियाँ, रसगुल्ले लिए दौड़े रहते कि वे उनसे रसगुल्ले खा लें, जलेबियाँ खा लें; पर हर हाल में उनका उलूल-जलूल बयान छाप दें; वही नेता जी आज न जाने क्यों अखबार वालों के सामनेआने से भी कतरा रहे थे। अखबार वाले परेशान थे, अखबार के खाली पेज पाठकों तक जाने का संकट खड़ा होनेवाला था। वे सारे काम छोड़ नेताओं को तलाश कर रहे थे, इसलिए नहीं कि नेताओं ने इनके मुँह का जायका बिगाड़कर रख दिया था, बल्कि इसलिए कि अब पाठक पढ़ेंगे क्या? वे छापेंगे क्या? वे दिखाएँगे क्या? नेताओं के पुराने बयान आखिर कितने दिन चलेंगे?
मैं कुत्ते को घुमा कर आ रहा था कि सामने से चारपत्रकार आते दिखाई दिए।  अपने मुहल्ले में कई दिनों से पानी नहीं आ रहा, महीनों से स्ट्रीट लाइट गुल हैं, बीसियों बार विभागों में शिकायत भी की। पर विभाग केकानों पर आज तक जूँ तक न रेंगी। जूँ तो तब रेंगे अगर विभागों के कान हों। आँख हो, पाँव हों। अब तो लगता है मेरे शहर का हर विभाग जैसेस्वाद इंद्री को छोड़ शेष सभी इंद्रियों से लुंज-पुंज हो गया है।
पत्रकारों को देख मन खिल उठा। तय था वे हमारे मुहल्लेके हाल पूछेंगे, हो सकता है मेरा बयान और फोटो  दोनों छाप दें। हो सकता है लेखनी की मार से विभागों की बहोश पड़ी इंद्रियाँ कामकरना जारी कर दें, जारी न भी करें तो कम से कम हरकत में तो आ जाएँ। कारण,आजकलविभाग जनता की कम मीडिया वालों की ज्यादा सुनने लगे हैं।
मैंनेआव देखा न ताव, झट सेजेब से जवानी के दिनों की कंघी निकाली और अपने व कुत्ते के सिर पर दे मारी।
पर मैं पल में ही समझ गया कि पत्रकारों की मुझमें औरकुत्ते में कोई दिलचस्पी नहीं। मुहल्ले की समस्याओं से उनका कोई लेना देना नहीं।वैसे भी समस्याओं का संबंध मन से है। अगर जनता मन से भरी-पूरी है तो समस्या अपनेलिए ही समस्या होगी, अपने लिए समस्या समस्या है तो होती रहे, हमें उससे क्या लेना देना ! सच कहूँ, अब मुझे भी समस्याओं के साथ रहने की आदत हो गई है। एक शादी-शुदा मर्द के लिएसबसे बड़ी समस्या उसकी पत्नी होती है,हर युग में, आप खुल कर ये बात नहीं कह सकते तो चलो आपका प्रतिनिधित्व करते हुए आपकी ओर सेभी मैं कहे देता हूँ। पर सँभाल लीजिएगा अगर मेरे इस बयान पर बवाल खड़ा हो जाए तो।आजकल जनता बयानों के बाल की खाल उतारने में जुटी है।
भाईसाहब, ओ कुत्ते वाले भाई साहब!! उन चारों में से एक ने मुझे पुकारा, पर मैंने उसकी आवाज को सुन कर भी अनसुना कर दिया।कारण, पहली आवाज़ में सुनना हमारे देश की संस्कृति के ख़िलाफ़है। तब दूसरे ने अपना पसीना पोंछते हुए मेरी ओर दीन-हीन दृष्टि से देखते कहा, “ओगुरूदेव, हम आपसे विनम्र निवेदन कर रहें हैं कि...
मैं और गुरूदेव!! कुत्ता भी ये सुनकर चौंका। उसे भीलगा कि गुरूघंटाल गुरूदेव कब से हो गए। पर रे कुत्ते, ये अपना देश है यहाँ मीडिया पलक झपकते किसीको कुछ भीबना देता है। मैंने गुरू का लबादा ओढ़ते सविनय कहा, “कहो सज्जनों क्या बातहै।
 “आपके यहाँ कोई नेता-वेता रहता है क्या?” तीसरे ने चौथे का पसीना पोंछते पूछा।
रहताथा। जबसे हमें लारे देकर जीत कर गया है आज तक नहीं आया।
कोईछोटा मोटा ही सही।
कुत्तायूनयन का एक नेता यहाँ रहता है। चलेगा तो कहो?”
हाँ-हाँ ,चलेगा क्या दौड़ेगा। मर गए सारे देश की ख़ाक छानते परकोई नेता बयान देने के लिए नहीं मिल रहा।
बयानक्या देना है?” मेरे भीतर गृहमंत्री सा कुछ जागने लगा।
अबतो कुछ भी कह दो। गालियाँ भी दोगे तो वह भी छाप देंगे।
सच!!
पेशेकी कसम! चारों ने एक साथ कहा तो... देखा न, पब्लिक! हम लोगों को आप लोग कितनी ही गालियाँ दे लो पर जब तक हमारा अंट-शंटबोला सुन न लो तब तक आपको भूखे पेट होने पर भी एक कौर रोटी तक हजम नहीं होती।
तोलो, हम हैं अखिल भारतीय कुत्ता संघ के प्रधान ! मैंने ज्यों ही कहा उन्होंने बिना कोई वेरीफीकेशन किए, मुझसे सवाल किया, “ये जो कुत्तों की नसबंदीसरकार कर रही है इसके विरोध में आप सरकार के अगेंस्ट क्या एक्शन लेने वाले हैं?”
 “फिलहाल नो कमेंट्स प्लीज।
क्यादेश के हित में है कुत्तों की नसबंदी?”
फिलहालनो कमेंट्स प्लीज!
कुत्तोंके हित में आप सरकार को क्या सलाह देना चाहेंगे?”
फिलहालनो कमेंट्स प्लीज।
कईदिनों से आपने कोई बयान नहीं दिया। आपको कब्जी नहीं हो रही है?”
फिलहालनो कमेंट्स प्लीज। कुत्तामेरे हर बार चुप रहने पर गुर्राया तो मैंने उसकी जीभ को उसके मुँह में घुसाते कहा, “नोकमेंट्स प्लीज। अबछापो अखबार वालो, क्याछापोगे?अब सारा दिन क्या खींचोगे टीवी वालो! पर तुम्हें भी पता हैकि कुत्ते की पूँछ और हमारी जीभ ज्यादा देर सीधी नहीं रह सकती। पर इस बारे भी अपनीओर से फिलहाल नो कमेंट्स प्लीज!

2 comments:

  1. बढ़िया व्यंग्य. आपके स्वयं के ब्लॉग पर आपको पढ़ना सुखद लगा.

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  2. बहुत ही तीखा कटाक्ष...अब ब्लॉग जगत में कुछ स्तरीय सामग्री आने लगी है...बधाई।

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The egoism which enters into our theories does not affect their sincerity; rather, the more our egoism is satisfied, the more robust is our belief.
George Eliot
(1819-1880)
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