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अरुण आदित्य |
संजीव लिखते हैं-------अरुण आदित्य का ‘उत्तर वनवास’ न सिर्फ़ औपान्यसिक संगठन, बल्कि प्रयोग, भाषा और शैल्पिक तथा वैचारिक परिपक्वता के लिहाज़ से भी एक सुगठित रचना के रूप में सामने आया है। उत्तर भारतीय जन जीवन में गहरे तक पैठा राम चरित्र मानस ही आधार है इस उपन्यास का और यही उसकी जड़ता का कारण। जो भी सचेत व्यक्ति आता है भारत में बिना जाति से टकराये आगे नहीं बढ़ पाता और उत्तर भारत में बिना राम चरितमानस से टकराये...। बाबा रामचन्द्र दास का किसान आंदोलन इसे धनात्मक रूप में अपनाता है तो प्रख्यात बंगला कथाकार सतीनाथ भादुड़ी अपने महाकाव्यात्मक आख्यानात्मक उपन्यास ‘दोंड़ाय चरितमानस’ के एंटी मैटर के रूप में पस्तुत करते हैं। दोंड़ाय राम की तरही चक्रवर्ती राजा दशरथ के पुत्र नहीं, राम चरित मानस गा-गाकर भीख मांगने वाले एक भीखमंगे की अवैध संतान है जिसकी मां किसी के साथ भाग गई है। दोंड़ाय का अध्याय विभाजन भी मानस का विद्रूप है। अरुण भले ही ऐसा साहस नहीं दिखा पाये हों लेकिन पारम्परिक रामकथा को लीक से हटाकर आज की कथाभूमि तक ले आने का सत्साहस अवश्य करते हैं। उपजीव्य को चुनने के पीछे उत्तर भारत के प्रधान अंतर्विरोध का चयन उनकी लेखकीय निष्ठा को प्रतिष्ठित करता है।
गांव के आखिरी छोर मकान नम्बर 151 में रहने वाले मायाराम और मंगला का बेटा है उनका रामचन्द्र। उन्हें लगता है मकान में नहीं दफ़ा 151 में रहते हैं, पुलिस जब चाहे उन्हें दबोच लेगी। बबूल के कांटे, बांस की कोठ और बिलों विवर से झांकते विषधर.... और माता-पिता का डर . उन्हीं के बीच पल रहा है उनका नायक और तमाम अन्तःवाह्य, काल्पनिक-वास्तविक यात्राओं से उपजे मोहभंगों का शिकार है। ‘राजनीति’ यहां ‘रामनीति’ है और भय उपन्यास की केन्द्रीय धुरी....।
‘‘दरअसल हम एक डरे हुए समय में जी रहे हैं, डरी राजनीति, डरा हुआ धर्म, डरा हुआ समाज बहुत खतरनाक होते हैं। और सबसे ज़्यादा खतरनाक होती है डरी हुई पत्रकारिता। और यह हमारे देश् का दुर्भाग्य है कि हमें इन डरी हुई चीज़ों के बीच रहना पड़ रहा है।’’
वर्ण के लिहाज़ से राम सवर्ण हैं। मगर वर्ग के लिहाज़ से निम्नवर्ग के। और वर्ण हार जाता है वर्ग से। डर का कारण फूलकली और नूरजहां का सौन्दर्य है और रामचन्द्र की पात्रता(योग्यता) भी। सवर्ण रामचन्द्र को उन्हीं की जाति के छोटे कुंवर राहुल सिंह उत्पीड़ित करते रहते हैं। गांव से त्रस्त रामचन्द्र फैज़ाबाद आते हैं। वहां से सत्यानंद का भाषण, बाबरी मस्जिद विध्वंस और क्रम से घटने वाली छोटी-छोटी घटनाएं रामचन्द्र के पुराने वनवास को नया अर्थ प्रदान करती हैं। वैसे यहां बोधिवृक्ष भी है। नदी के तट पर खड़ा अश्वत्थामा। अपनी निष्ठा से रामचन्द्र इस ‘राजनीति’, ‘रामनीति’ में भी प्रभावशाली बनते चले जाते हैं। और एक दिन गांव लौटते हैं तो जिस रामलोक की या स्वप्नलोक की परिकल्पना में उन्होंने इतने दिन गवाएं, यह देखकर उन्हें धक्का लगता है कि वह दुःस्वप्न में परिणत हो चुका है। राम के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी का चरित्र और कुछ पात्रों के चेहरे इतने पारदर्शी हैं कि सहज ही पहचाने जा सकते हैं। लेखक का संकेत भी स्पष्ट है। लेखक ने ‘बांयी ओर जा रही एक उबड़-खाबड़ पगडंडी’ लिखकर अपनी वामपक्षधरता स्पष्ट कर दी है। दलित पक्षधरता और सवर्णों पर दलित प्रेम पर भी वे कटाक्ष करने से नहीं चूकते --‘‘वे हरिजनों के दुःख-दर्द को महसूस करना चाहते थे लेकिन उन्हें लगता है कि उसके लिए रैदासी टोले में पैदा होना पड़ेगा जोकि उनके हाथ में नहीं है।’’ या
‘‘लोकनीति और मर्यादा तय करने वाले तो हम ही हैं-सबरी के बैर भी हमीं खाते हैं और एकलव्य का अंगूठा भी हमीं कटवाते हैं।’’ गांव आने पर रामचन्द्र पाते हैं कि सुविधावादी चेहरे गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं जो उत्तर प्रदेश की राजनीति पर शत-प्रतिशत सही बैठता है।
अरुण ने कहानी से नहीं, कविता से उपन्यास में पदार्पण किया है, लेकिन भाषा की विरल व्यंजनाओं को जिस तरह साधा है, जिस तरह फ्लैश बैक, स्वप्न, डायरी, कविता, बिम्बों और फंतासियों का बहुविध प्रयोग किया है, वह उनके अन्दर छुपी संभावनाओं को दर्शाता है। अलबत्ता अरुण भी सायास शैल्पिक और भाषिक रचाव के मोह से मुक्त नहीं हैं। धनात्मक पक्ष इसकी ताकत बनता है और ऋणात्मक पक्ष उनके फैलावों के हाथ बांधे रखता है। जैसे - उपन्यास की उठान वे जहां से करते हैं अर्थात् वर्ग बनाम वर्ण उनकी हकीकत का सामना किया जा सकता था लेकिन शैल्पिक संरचना जगह-जगह उनका रास्ता रोक लेती है। एक अंश देखिए -- ‘‘रामचन्द्र उसके पीछे इतनी तेज़ी से लपके कि नींद से बाहर निकल गए। नींद से बाहर आने के बाद भी सपने से बाहर आने में उन्हें काफी देर लगी।’’ विशिष्ट बनायेगा लेकिन जनता से जोड़ने में आड़े आयेगा।
जिस किसी ने भी यह आलेख लिखा है उसे पता होना चाहिए कि किसी समीक्षा को लिखने से पहले उसे विषय का एक्सपर्ट होना पड़ता है। सतीनाथ भादुड़ी के ‘ढ़ोंड़ायचरितमानस’ पर मैंने रिसर्च किया है। लगता है समीक्षक को मूल बांग्ला या हिंदी अनुवाद पढ़कर उपन्यास समझ नहीं आई कि उपन्यास में ‘ढ़ोंड़ाय' किसी भिखमंगे की सन्तान नहीं है और ना ही उसकी माँ भाग गयी है वरन वह गाँव के ही युवक बाबूलाल की पत्नी बन जाती है, क्योंकि उसका पति मर चूका होता है। उपन्यास में कोई एंटीमैटर नहीं है।
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