लघुकथा: भैस बड़ी (रतन चंद 'रत्नेश')

हाड़ में गांव। गांव में एक किनारे पर बसा गरीब घर। घर में दो विधवाएं - सास और बहू। आगे बहू के तीन बच्चे और थोड़ा-सा खेत। आय का साधन -- विधवा पेंशन और गोड (गोशाला) में बंधी भैसों के दूध की बिक्री। सौभाग्य से इन दिनों दोनों भैसों में दूध था। बच्चों के लिए थोड़ा-सा दूध बचाकर बाकी सारा पास के ही एक दुकान में भेज दिया जाता और इस प्रकार किसी तरह परिवार का गुजर-बसर हो रहा था।
गरीबी में आटा भी अक्सर गीला होता ही रहता है। एक दिन अचानक दोनों भैसें एक साथ बीमार पड़ गईं और दुर्भाग्य दबे पांव ऐसे आया कि उसी दिन घर का एक बच्चा भी रोगग्रस्त हो गया।
तत्क्षण झाड़-फूंक करने वाले गांव के चेले को बुलाया गया। चेला समझदार था। उसे ज्ञान था कि गांव के मुहाने पर खुले देसी ठेके के दारू ने उसके पुश्तैनी मंत्र-सिद्धि को बेअसर कर दिया है। जंत्र और धूणी-धागे का अब कोई असर नहीं होता। मंत्रोच्चारण करते समय भी षब्द अटक-भटक जाते हैं। अब न पशुओं के ओपरे पर उसका वश चलता है, न बच्चों की आधि-व्याधि पर। पर फिर भी गांव के गरीबों का वही सबसे पहला उद्धारक था। उसके प्रति आस्था बची हुई थी। भैसों पर उसने बुदबुदाते हुए हाथ फेरा। लगे हाथों ज्वर-पीड़ित बच्चे पर भी मोर-पंखों का मुठ चलवा दिया गया।
  ‘‘ओपरे का इलाज तो मैंने कर दिया है पर डंगर-डाक्टर को भी दिखा लेणा चाहिदा। इस बरसात में पीने का पानी गंदा हो जाने के कारण माणू (मनुष्य) ही नहीं, माल-मवेशी भी बीमार पड़ रहे हैं।’’ कहकर चेले ने मंत्रसिद्ध आटे का बटा हुआ पेड़ा (लोई) दोनों भैसों के मुंह में धकेला और अपना कोहाड़ू (कुल्हाड़ी) उठाकर चलता बना।
दोनों विधवाओं के चेहरे पर परेशानी की रेखाएं उभर आयीं। घर में एक बच्चा भी ताप से तप रहा था। लिहाजा एक मानव-चिकित्सक और एक पशु-चिकित्सक दोनों की बराबर आवश्यकता  आन पड़ी थी, पर दोनों के इलाज के लिए पैसे........ ?
यों तो पंचायत में एक पशु-चिकित्सालय भी था जो सारा दिन खुला रहता  पर वहां डाक्टर नामके उस सरकारी कर्मचारी के कभी कभार ही दर्शन  होते। छः गांवों में से पता नहीं किस गांव में वह गुम हुआ रहता। अतः गांव से आधा किलोमीटर दूर सड़क के किनारेवाले प्राइवेट डंगर-डाक्टर की ही पूछ थी। कुछ लोग कहते कि सरकारी पशु-चिकित्सालय से गायब रहने की एवज में उस सरकारी कर्मचारी को इस प्राइवेट डंगर-डाक्टर से कुछ बंधी-बंधाई मिलती है। पता नहीं, यह झूठ था या सच?
सास न बहू को देखा और बहू ने सास को और आंखों ही आंखों में अंतिम निर्णय हो गया। गोड की बीह पर चिंतामग्न बैठी सास उठकर प्राइवेट डंगर-डाक्टर को बुलाने चल पड़ी।


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We should regret our mistakes and learn from them, but never carry them forward into the future with us.
Lucy Maud Montgomery
(1874-1942)
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