रिश्तों को महसूस करो, कोई नाम न दो।

आज रक्षा बंधन का पावन त्योहार। सभी को शुभकामनाएं।




पिछली बार भ्रातृ-द्वितीया के दिन एफ. एम. पर मेरा प्रोग्राम था, तो हर कॉलर दोस्त ने ऑन एयर टीका लगवाया था। जो भी आता कहता, दीदी मुझे भी टीका लगाईए। कितनी पाक सोच से उन्होंने यह आग्रह किया था। अक्सर लोग बहनें बनाने या भाई बनाने से घबराते हैं। बड़ा अटपटा सा लगता है न, यह कहना कि ‘बनाना’। रिश्ते तो बनाए नहीं जाते, बन जाते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि खून के रिश्ते यानी रक्त संबंध धरे के धरे रह जाते हैं और जिनके साथ हमारा खून का रिश्ता नहीं होता, वे रिश्ते बहुत ही मज़बूत और स्थाई बन जाते हैं। वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि रिश्तों को नामकरण के बंधनों में नहीं डालना चाहिए।







आज यह बात इस लिए भी याद आई कि आज मैंने हमारे एक दोस्त को फोन किया। हुआ यूं कि शहर में हमारा एक ग्रुप हुआ करता था, साहित्यिक सरोकारों से जुड़े दोस्तों का। उसमें हम सिर्फ़ दो महिलाएं थीं और शेष पुरुष। सारे पुरुष सदस्य हमसे सीनियर थे। दोस्ती के बावजूद हम एक दूसरे को परस्पर उम्र की सीनिऑरिटी के लिहाज़ से सम्मान दिया करते। मुझे छोड़कर सभी ट्रांसफ्रेबल नौकरियों में थे। ग्रुप में शामिल होने वाले नए सदस्य को एंट्री के तौर पर पार्टी देनी पड़ती थी। हम मासिक सब्सक्रिपशन भी जमा करते थे। जब किसी का ट्रांसफर होता तो उसे फेयरवेल पार्टी और फेयरवेल गिफ्ट दी जाती। बहुत व्यस्तता के चलते ग्रुप की मीटिंगों में कभी कोई अनुपस्थित भी हो जाता। ऐसे ही में एक दोस्त डी. के. जी कई मीटिंगों में न आ सके और जब आए तो मुझसे उनका नया परिचय हुआ। उनसे मेरा परिचय करवाया गया। अचानक चंडीगढ़ वाले दो दोस्तों से मुझे पंजाबी में बात करते देख उन्होंने पूछा, पंजाब में आप कहाँ की है। मेरे नवांशहर कहने पर उन्होंने कहा - मैं आदमपुर से हूँ। मैंने कहा - हाँ, हैं तो दोनों ही दोआबा के। तो पी. के. जी ने जान-बूझकर चुटकी लेते हुए डी. के. जी से कहा – अरे ! तब तुम लोग भाई-बहन हो गए। अब डी. के. जी का रियेक्शन देखने लायक था। यह क्या करते हो यार ? बस तब से हम लोगों ने उन्हें ‘भाई’ ही कहना शुरू कर दिया मज़ाक-मज़ाक में। दूसरी महिला थीं, एस. डी.। उसने भी एक दिन उन्हें भईया कह दिया तो फिर डी. के. जी ने उसी तरह रियेक्ट किया। मैंने कहा कि भई, नौकरीशुदा बहनें बनाने में तो आपको फायदा ही होगा, घाटे में नहीं रहेंगे। डी. के. जी ने कहा, अरे यार! दोस्ती का रिश्ता ही रहने दो। दोस्त ही ठीक हैं। ये भाई-भाई ठीक नहीं लगता। आजकल तो भाईयों का बोलबाला है। ‘भाई’ से तो हर कोई डरता है। आप बहनों के नाम से घबराते हैं। फिर डी. के. जी का ट्रांसफर हो गया। ग्रुप ने उन्हें फेयरवेल पार्टी तथा फेयरवेल गिफ्ट दी। जिसे भी उनका फोन आता तो यही कहता कि कल भाई से बात हुई थी, या भाई को फोन किया था या भाई का फोन आया था। चूंकि मैं लोकल हूँ तो मैंने कहा कि आप लोग ट्रांसफर होकर जाते रहेंगे और एकमात्र मैं सबको फेयरवेल देती रहूंगी। मुझे कभी फेयरवेल नहीं मिलेगा (क्योंकि मेरे अतिरिक्त सभी बैंकर थे और उनके पद ट्रांसफर वाले थे) । यह अलग बात है कि बाद में कुछ ग़लत लोगों के जुड़ जाने से वह ग्रुप टूट ही गया। और हम केवत तीन लोग बचे थे, जो आपस अक्सर मिला करते।



वैसे तो डी. के. जी से बात होती ही रहती है लेकिन पिछले साल भाई दूज के दिन मैंने डी. के. जी को फोन लगा कर कहा -  मैंने सोचा आज भाईयों का दिन है तो भाई को याद कर लिया जाए। आपने तो हमें याद नहीं किया। उन्होंने कहा, तुम फिर शुरु हो गई। कहा न ये भाई, भाई मत किया करो। उन्हें आज तक समझ में नहीं आता कि हम चिढ़ाने के लिए कहते हैं या फिर वे भी जान-बूझकर इस तरह रियेक्ट करते हैं । जब भी मैं फोन करती हूँ तो वे पूछा करते हैं - लखनऊ कब आ रही हो। मैं कहती हूँ आप खुद तो फोन करते नहीं, मैं फोन करूं तो पूछा जाता है कि लखनऊ कब आ रही हो। आप हमारा शहर छोड़कर भाग गए (वे अपनी मर्ज़ी से ट्रांसफर करवा करा गए थे च्वॉयस ट्रांसफर पर, तब से मैं भी चिढ़ाने के लिए कहा करती हूँ कि हम क्यों आएं, आपके शहर। आप तो हमारा शहर छोड़ कर भाग गए)। अरे, तुम्हारी ट्रेन तो इधर से ही जाती है।





आज सुबह से ही ज़ेहन में था कि हो न हो डी. के. जी को फोन ज़रूर करना है। ऑफिस की व्यस्तता में समय ही नहीं मिला। अचानक ऑफिस से घर लौटते समय रास्ते में याद आ गया कि भाई को तो फोन किया ही नहीं। तुरंत पौने सात बजे शाम को फोन किया। पता नहीं चल पाया कि किसने रिसीव किया, उधर से पूछा गया कि कहां से कौन बोल रहे हैं। मैंने कहा - कलकत्ते से नीलम बोल रही हूँ और भाई का पूरा नाम लेकर कहा कि उनसे बात करनी है। तब तक मोबाईल भाई जी के हाथों तक पहुंच गया था। उन्होंने भी पूछा, कौन। मैंने उनका पूरा नाम लेकर पंजाबी में कहा - नीलम बोल रही हूँ। उन्होंने कहा, हो कहाँ? मैंने कहा - अपने शहर में, ऑफिस से घर जा रही हूँ। सोचा आज के दिन भाई से बात कर लूं। आपने तो फोन किया नहीं। उन्होंने कहा, देखो तुम खुले आम सबके सामने एक लड़के को छेड़ रही हो। मैंने कहा- किसने देखा और किसने सुना कि मैं किसी को छेड़ रही हूँ। मैंने फिर वही बात दोहराई कि आपको इतनी बार समझाया कि कमाऊ बहनें घाटे का सौदा नहीं होतीं। उन्होंने फिर वही कहा, कमाऊ-गैर कमाऊ की बात नहीं। दोस्त, दोस्त रहने चाहिएं। फिर उन्होंने बताया कि कल मेरा छोटा बेटा कह रहा था, पापा मैं तो बच गया, कल स्कूल में पाँच-छह लड़कियां सबको राखी बांध रही थी। मैंने तुरंत कहा, पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जाते हैं। बेटा बिलकुल बाप पर गया है। फिर मैंने भी मज़ाक में कहा - देखिए, भगवान ने मुझे दो भाई दे रखे हैं, मुझे भी और भाई बनाने का क़तई शौक नहीं है। दोस्त ही बनाती हूँ मैं। उन्होंने कहा - यह हुई न बात। उन्होंने आदतन पूछा - लखनऊ कब आ रही ? मैंने भी वही रटा-रटाया जवाब दिया, मैं क्यों आऊं आपके शहर। उन्होंने फिर कहा, तुम्हारी ट्रेन तो इधर से ही जाती है। मैंने कहा - आजकल मैं उड़ कर जाती हूँ। जवाब में उन्होंने कहा, हाईजैक करवा कर लखनऊ उतार लेंगे।


ख़ैर,  सबसे बड़ी बात है कि  संवाद होते रहना चाहिए आपस में।



(कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी अपनी बहनें हैं फिर भी उन्हें और बहनें बनाने में कोई ऐतराज़ नहीं।) सुबह-सुबह श्याम नारायण जी का फोन आया था। कहा अमुक जगह, अमुक बहन के पास राखी बंधवाने आया हूँ, बंधवा कर ऑफिस जाऊंगा। आपकी भाभी तो राखी बांधने मायके गई हुई हैं। शाम को लौटेंगी। वे इन ख़ास दिनों में ज़रूर फोन करते हैं। बता रहे थे कि पोर्ट ब्लेयर से रज़िया का फोन आया था, कह रही थी राखी भेज दी है परंतु आज तक तो मिली नहीं। मैंने उनसे कहा, पोर्ट ब्लेयर का मामला है, कोई बात नहीं भाई दूज वाले दिन बांध लीजिएगा। बात भावनाओं के सम्मान की है।


एक बात और......बंगाल में नाम के साथ दा और दी लगाने का चलन है। क़माल है कि बचपन से मुझे यही पता था कि दादा (भईया) का संक्षिप्त रूप है ‘दा’ और इसी तरह दीदी का संक्षिप्त रूप है ‘दी’। यह तो बहुत बाद में पता चला कि दादा या दीदी का संक्षिप्त रूप न होकर सम्मान पूर्वक अपनों से बड़ों के नाम के साथ दा या दी संबोधन जोड़ा जाता है। दा या दी का अर्थ क़तई वह नहीं जो मैं समझती थी। बचपन में मेरी समझ में नहीं आता था कि दा और दी कहने वालों की आपस में शादी कैसे हो गई। बांग्ला वाले भले ही सम्मान पूर्वक दा या दी संबोधन को नाम के साथ जोड़ते होंगे लेकिन गैर बंगाली होने के नाते मेरे मन में तो यही भावना आती हैं कि हमने दा या दी कहकर उन्हें दादा यानी भईया या दीदी के रूप में सम्मान दिया है।







प्रस्तुति - नीलम शर्मा 'अंशु'

1 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    *** भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है! उपयोगी सामग्री।

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Do not read, as children do, to amuse yourself, or like the ambitious, for the purpose of instruction. No, read in order to live.
Gustave Flaubert
(1821-1880)
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